SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना उनचालीस सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यग्दर्शन रूप परिणामोंसे बंध नहीं होता। उसके जो बंध होता है उसका कारण अप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंका उदय है। सम्यग्दर्शनादि भाव मोक्षके कारण है वे बंधके कारण नहीं हो सकते किंतु उनके सद्भावकालमें जो रागादिक भाव हैं वे ही बंधके कारण हैं। इसी भावको अमृतचंद्रसूरिने निम्नांकित कलशमें प्रकट किया है रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः । तत एव न बन्धोऽस्ति ते हि बन्धस्य कारणम् । । ११९ । । चूँकि ज्ञानी जीवके राग द्वेष और विमोहका अभाव है इसलिए उसके बंध नहीं होता। वास्तवमें रागादिक ही बंधके कारण हैं जहाँ जघन्य रत्नत्रयको बंधका कारण बतलाया है वहाँ भी यही विवक्षा ग्राह्य है कि उसके कालमें जो रागादिक भाव हैं वे बंधके कारण हैं। रत्नत्रयको उपचारसे बंधका कारण कहा गया है। यह आस्रवाधिकार १६४ से १८० गाथा तक चलता है। संवराधिकार आस्रवका विरोधी तत्त्व संवर है अतः आस्रवके बाद ही उसका वर्णन किया जा रहा है। "आस्रवनिरोधः संवरः' आस्रवका रुक जाना संवर है। यद्यपि अन्य ग्रंथकारोंने गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रको संवर कहा है किंतु इस अधिकारमें कुंदकुंद स्वामीने भेदविज्ञानको ही संवरका मूल कारण बतलाया है। उनका कहना है कि उपयोग, उपयोगमें ही है, क्रोधादिकमें नहीं है और क्रोधादिक क्रोधादिकमें ही हैं, उपयोगमें नहीं हैं। कर्म और नोकर्म तो स्पष्ट ही आत्मासे भिन्न हैं अतः उनसे भेदज्ञान प्राप्त करनेमें महिमा नहीं है। महिमा तो उस उस रागादिक भाव कर्मोंसे अपने ज्ञानोपयोगको भिन्न करनेमें है जो तन्मयीभावको प्राप्त होकर एक दिख रहे हैं। अज्ञानी जीव इस ज्ञानधारा और रागादिधाराको भिन्न-भिन्न नहीं समझ पाता इसलिए वह किसी पदार्थका ज्ञान होनेपर उसमें तत्काल राग-द्वेष करने लगता है परंतु ज्ञानी जीव उन दोनों धाराओंके अंतरको समझता है इसलिए वह किसी पदार्थको देखकर उसका ज्ञाता-द्रष्टा तो रहता है परंतु राग-द्वेषी नहीं होता। जहाँ यह जीव रागादिकको अपने ज्ञाता द्रष्टा स्वभावसे भिन्न अनुभव करने लगता है। वहीं उनके संबंधसे होनेवाले रागद्वेषसे बच जाता है। राग द्वेषसे बच जाना ही सच्चा संवर है। किसी वृक्षको उखाड़ना हो तो उसके पत्ते नोंचने से काम नहीं चलेगा, उसकी जड़ पर प्रहार करना होगा। राग द्वेषकी जड़ है भेद विज्ञानका अभाव । अतः भेद विज्ञानके द्वारा उन्हें अपने स्वरूपसे पृथक् समझना यही उनके नष्ट करनेका वास्तविक उपाय है। इस भेदविज्ञानकी महिमा का गान करते हुए अमृतचंद्रसूरिने कहा है भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।। १३१ । । आजतक जितने सिद्ध हुए हैं वे सब भेदविज्ञानसे ही सिद्ध हुए हैं और जितने संसारमें बद्ध हैं वे भेदविज्ञानके अभावसे ही बद्ध हैं। इस भेदविज्ञानकी भावना तबतक करते रहना चाहिए जब तक कि ज्ञान, परसे च्युत होकर ज्ञानमे ही प्रतिष्ठित नहीं हो जाता। परपदार्थसे ज्ञानको भिन्न करनेका पुरुषार्थ चतुर्थ गुणस्थानसे शुरू होता है और दशम गुणस्थानके अन्तिम समयमें समाप्त होता है। वहाँ वह परमार्थसे अपनी ज्ञानधाराको रागादिककी धारासे पृथक् कर लेता है। इस दशामें इस तत्त्वार्थसूत्र नवमाध्याय सूत्र १ । २. 'स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः' तत्त्वार्थसूत्र नवमाध्याय सूत्र २ । १.
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy