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________________ अड़तीस कुंदकुंद-भारती उपादेय दोनों रूप है। किन्हीं-किन्हीं आचार्योंने सम्यग्दृष्टिके पुण्यको मोक्षका कारण बताया है और मिथ्यादृष्टिके पुण्यको बंधका कारण। उनका यह कथन भी नयविवक्षासे संगत होता है। वस्तुतत्त्वका यथार्थ विश्लेषण करनेपर यह बात अनुभवमें आती है कि सम्यग्दृष्टि जीवकी, मोहका आंशिक अभाव हो जानेसे जो आंशिक निर्मोह अवस्था हुई है वही उसकी निर्जराका कारण है और जो शुभ रागरूप अवस्था है वह बंधका ही कारण है। बंधके कारणोंकी चर्चा करते हुए कुंदकुंद स्वामीने तो एक ही बात कही है -- रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो। ऐसो जिणोवएसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।।१५०।। रागी जीव कर्मोंको बाँधता है और विरागको प्राप्त हुआ जीव कर्मोको छोड़ता है। यह भी जिनेश्वर का उपदेश है, इससे कर्मोंमें राग मत करो। यहाँ आचार्यने शुभ अशुभ दोनों प्रकारके रागको ही बंधका कारण कहा है। यह बात जुदी है कि शुभ रागसे शुभ कर्मका बंध होता है और अशुभ रागसे अशुभ कर्मका। शुभ रागके समय शुभ कर्मों में स्थिति अनुभाग बंध अधिक होता है और अशुभ रागमें अशुभ कर्मों में स्थिति अनुभाग बंध अधिक होता है। वैसे प्रकृति और प्रदेश बंध तो यथासंभव व्युच्छित्तिपर्यंत सभी कर्मोंका होता रहता है। __ यह पुण्यपापाधिकार १४५ से १६३ गाथा तक चलता है। आस्रवाधिकार संक्षेपमें जीव द्रव्यकी दो अवस्थाएँ हैं -- एक संसारी और दूसरी मुक्त। इनमें संसारी अवस्था अशद्ध होनेसे हेय है और मुक्त अवस्था शुद्ध होनेसे उपादेय है। संसार अवस्थाका कारण आस्रव और बंधतत्त्व है तथा मोक्ष अवस्थाका कारण संवर और निर्जरा तत्त्व है। आत्माके जिन भावोंसे कर्म आते हैं उन्हें आस्रव कहते हैं। ऐसे भाव चार हैं -- मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रकारने इन चारके सिवाय प्रमादका भी वर्णन किया है, परंतु कुंदकुंद स्वामी प्रमादको कषायका ही एक रूप मानते हैं अतः उन्होंने चार आस्रवोंका ही वर्णन किया है। इन्हीं चारके निमित्तसे आस्रव होता है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों ही आस्रव हैं, उसके बाद अविरत सम्यग्दृष्टि तक अविरमण, कषाय और योग ये तीन आस्रव हैं। पंचम गुणस्थानमें एकदेश अविरमणका अभाव हो जाता है। छठवें गुणस्थानसे दसवें गुणस्थान तक कषाय और योग ये दो आस्रव हैं और उसके बाद ११, १२ और १३ वें गुणस्थानमें मात्र योग आस्रव है। तथा चौदहवें गुणस्थानमें आस्रव बिलकुल ही नहीं है। इस अधिकारकी खास चर्चा यह है कि ज्ञानी अर्थात सम्यग्दष्टि जीवके आस्रव और बंध नहीं होते। जब कि करणानुयोगकी पद्धतिसे अविरत सम्यग्दृष्टिको आदि लेकर तेरहवें गुणस्थान तक क्रमसे ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १, १,१ प्रकृतियोंका बंध बताया है। यहाँ कंदकंद स्वामीका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मिथ्यात्व और अनंतानुबंधीके उदयकालमें इस जीवके तीव्र अर्थात् अनंत संसारका कारण बंध होता था उस प्रकारका बंध सम्यग्दृष्टि जीवके नहीं होता। सम्यग्दर्शनकी ऐसी अद्भुत महिमा है कि उसके होनेके पूर्व ही बध्यमान कर्मोंकी स्थिति घटकर अन्त:कोडाकोडी सागर प्रमाण हो जाती है और सत्तामें स्थित कर्मोकी स्थिति इससे भी संख्यात सागर कम रह जाती है। वैसे भी अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके ४१ प्रकृतियोंका आस्रव और बंध तो रुक ही जाता है। वास्तविक बात यह है कि सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा। मोक्खस्स होइ हेउं जइवि णिदाणं ण सो कुणई।।४०।। -- भावसंग्रहे देवसेनस्य
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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