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कुंदकुंद-भारती ४. चारित्रभक्ति
तिलोए सव्वजीवाणं, हिदं धम्मोवदेसिणं। वड्डमाणं महावीरं, वंदित्ता सव्ववेदिणं ।।१।। घादिकम्मविघादत्थं, घादिकम्मविणासिणा।
भासियं सव्वजीवाणं चारित्तं पंचभेददो।।२।। तीनों लोकोंमें समस्त जीवोंका हित करनेवाले, धर्मोपदेशक, सर्वज्ञ, वर्धमान महावीरको वंदना करके चारित्र भक्ति कहता हूँ। घातिया कर्मका विनाश करनेवाले महावीर भगवानने घातिया कर्मोंका विघात करनेके लिए भव्य जीवोंको पाँच प्रकारका चारित्र कहा है।।१-२।।
पाँच प्रकारका चारित्र सामाइयं तु चारित्तं, छेदोवट्ठावणं तहा। तं परिहारविसुद्धिं च, संजमं सुहुमं पुणो।।३।। जहाखादं तु चारित्तं, तहाखादं तु तं पुणो।
किच्चाहं पंचहाहारं, मंगलं मलसोहणं ।।४।। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात यह पाँच प्रकारका चारित्र है। इनमें यथाख्यातको तथाख्यात भी कहते हैं। मैं मलका शोधन करनेवाले और मंगलस्वरूप पाँच प्रकारका चारित्र धारण कर मुक्तिसंबंधी सुखको प्राप्त करता है।। ३-४ ।।
मुनियोंके मूलगुण तथा उत्तरगुण अहिंसादीणि उत्ताणि, महब्बयाणि पंच य। समिदीओ तदो पंच, पंच इंदियणिग्गहो।।५।। छन्भेयावास भूसिज्जा, अण्हाणत्तमचेलदा। लोयत्ति ठिदिभुत्तिं च, अदंतधावणमेव च।।६।। एयभत्तेण संजुत्ता, रिसिमूलगुणा तहा। दसधम्मा तिगुत्तीओ, सीलाणि सयलाणि च।।७।। सव्वेवि य परीसहा, उत्तुत्तरगुणा तहा। अण्णो वि भासिया संता, तेसिं हाणि मए कया।।८।।