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भक्तिसंग्रह
वस्तु प्राभृतोंकी संख्या
एक्क्कम्मिय वत्थू, वीसं वीसं च पाहुडा भणिया । विसमसमावि य वत्थू, सव्वे पुण पाहुडेवि समा ।।९।।
एक एक वस्तु नामक अधिकारमें बीस-बीस पाहुड कहे गये हैं। वस्तु अधिकार तो विषम और सम दोनों प्रकारके हैं जैसे किसीमें चौदह किसीमें अठारह और किन्हींमें बारह-बारह आदि । परंतु प्राभृतोंकी अपेक्षा सब वस्तु अधिकार समान हैं अर्थात् सब वस्तु अधिकारोंमें प्राभृतोंकी संख्या एक समान बीसबीस है ।। ९ ।।
चौदह पूर्वोंमें वस्तुओं और प्राभृतोंकी संख्या पुव्वाणं वत्थुसयं, पंचाणउदी हवंति वत्थूओ ।
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पाहुड तिणि सहस्सा णवयसया चउदसाणं पि । । १० । ।
चौदह पूर्वोके एकसौ पंचानवे वस्तु अधिकार होते हैं और पाहुड तीन हजार नौ सौ होते हैं ।। १० ।।
एव मए सुदपवरा, भत्तीराएण सत्थुया तच्चा ।
सिग्धं मे सुदलाहं, जिणवरवसहा पयच्छंतु । । ११ । ।
इस प्रकार मैंने भक्तिके रागसे द्वादशांगरूप श्रेष्ठ श्रुतका स्तवन किया। जिनवर वृषभ देव मुझे शीघ्र ही श्रुतका लाभ देवें । । ११ । ।
अंचलिका
इच्छामि भंते! सुदभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, अंगोवंगपइण्णए पाहुड परियम्मि सुत्त पढमाणुओग पुव्वगय चूलिया चेव सुत्तत्थवथुइ धम्मकहाइयं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिनगुणसंपत्ति होउ मज्झं ।।
हे भगवन्! मैंने जो श्रुतभक्तिसंबंधी कायोत्सर्ग किया है उसकी आलोचना करना चाहता हूँ । अंग, उपांग, प्रकीर्णक, प्राभृत, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका तथा सूत्र, स्तव, स्तुति तथा धर्मकथा आदिकी नित्यकाल अर्चा करता हूँ, पूजन करता हूँ, वंदना करता हूँ, उन्हें नमस्कार करता हूँ। इसके फलस्वरूप मेरे दुःखोंका क्षय हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरण हो और मेरे लिए जिनेंद्र भगवान्के गुणोंकी संप्राप्ति हो ।।
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