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________________ ३३४ कुदकुद-भारता जे पुण विसयविरत्ता, णाणं णाऊण भावणासहिदा । छिंदंति चादुरगदिं, तवगुणजुत्ता ण संदेहो।।८।। किंतु जो ज्ञानको जानकर उसकी भावना करते हैं अर्थात् पदार्थके स्वरूपको जानकर उसका चिंतन करते हैं और विषयोंसे विरक्त होते हुए तपश्चरण तथा मूलगुण और उत्तरगुणोंसे युक्त होते हैं वे चतुर्गतिरूप संसारको छेदते हैं -- नष्ट करते हैं इसमें संदेह नहीं है।।८ ।। जह कंचणं विसुद्धं, धम्मइयं खंडियलवणलेवेण। तह जीवो वि विसुद्धं, णाण विसलिलेण विमलेण।।९।। जिस प्रकार सुहागा और नमकके लेपसे युक्त कर फूंका हुआ सुवर्ण विशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानरूपी निर्मल जलसे यह जीव भी विशुद्ध हो जाता है।।९।। णाणस्स णत्थि दोसो, कापुरिसाणो वि मंदबुद्धीणो। जे णाणगव्विदा होऊणं विसएसु रज्जते।।१०।। जो पुरुष ज्ञानके गर्वसे युक्त हो विषयोंमें राग करते हैं वह उनके ज्ञानका अपराध नहीं है, किंतु मंदबुद्धिसे युक्त उन कापुरुषोंका ही अपराध है।।१०।। णाणेण दंसणेण य, तवेण चरिएण सम्मसहिएण। होहदि परिणिव्वाणं, जीवाणं चरितसुद्धाणं।।११।। निर्दोष चारित्र पालन करनेवाले जीवोंको सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् तप और सम्यक्चारित्रसे निर्वाण प्राप्त होता है।। भावार्थ-- जैनागममें सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र इन चार आराधनाओंसे मोक्षप्राप्ति होती है ऐसा कहा गया है, परंतु ये चारों आराधनाएँ उन्हीं जीवोंके मोक्षका कारण होती हैं जो चारित्रसे शुद्ध होते हैं अर्थात् प्रमाद छोड़कर निर्दोष चारित्रका पालन करते हैं।।११।। सीलं रक्खंताणं, सणसुद्धाण दिढचरित्ताणं। अत्थि धुवं णिव्वाणं, विसएसु विरत्तचित्ताणं ।।१२।। जो शीलकी रक्षा करते हैं, जो शुद्ध दर्शन -- निर्दोष सम्यक्त्वसे सहित हैं, जिनका चारित्र दृढ़ है और जो विषयोंसे विरक्तचित्त रहते हैं उन्हें निश्चित ही निर्वाणकी प्राप्ति होती है।।१२।। विसएसु मोहिदाणं, कहियं मग्गं पि इदरिसीणं। उम्मग्गं दरिसीणं, णाणं पि णिरत्थयं तेसिं।।१३।। जो मनुष्य इष्ट -- लक्ष्यको देख रहे हैं वे वर्तमानमें भले ही विषयोंमें मोहित हों, तो भी उन्हें मार्ग
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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