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अष्टपाहुड
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भावार्थ -- शील और ज्ञानका विरोध नहीं है, किंतु सहभाव है। जहाँ शील होता है वहाँ ज्ञान अवश्य होता है और शील न हो तो पचेंद्रियोंके विषय ज्ञानको नष्ट कर देते हैं।।२।।
दुक्खणज्जहि णाणं, णाणं णाऊण भावणा दुक्खं।
भावियमई व जीवो, विसएसु विरज्जए दुक्खं ।।३।। प्रथम तो ज्ञान ही दुःख से जाना जाता है, फिर यदि कोई ज्ञानको जानता भी है तो उसकी भावना दुःखसे होती है, फिर कोई जीव उसकी भावना भी करता है तो विषयोंमें विरक्त दु:खसे होता है।।३।।
ताव ण जाणदि णाणं, विसयबलो जाव वट्टए जीवो।
विसए विरत्तमेत्तो, ण खवेइ पुराइयं कम्मं ।।४।। जबतक जीव विषयोंके वशीभूत रहता है तबतक ज्ञानको नहीं जानता और ज्ञानके बिना मात्र विषयोंसे विरक्त हुआ जीव पुराने बँधे हुए कर्मोंका क्षय नहीं करता।।४।।
णाणं चरित्तहीणं, लिगग्गहणं च दंसणविहणं।
संजमहीणो य तवो, जइ चरइ णिरत्थयं सव्वं ।।५।। यदि कोई साधु चारित्ररहित ज्ञानका, सम्यग्दर्शनरहित लिंगका और संयमरहित तपका आचरण करता है तो उसका यह सब आचरण निरर्थक है।
___ भावार्थ -- हेय और उपादेयका ज्ञान तो हुआ परंतु तदनुरूप चारित्र न हुआ तो वह ज्ञान किस कामका? मुनिलिंग तो धारण किया, परंतु सम्यग्दर्शन न हुआ तो वह मुनिलिंग किस कामका? इसी तरह तप भी किया परंतु जीवरक्षा अथवा इंद्रियवशीकरणरूप संयम नहीं हुआ तो वह तप किस कामका? इस सबका उद्देश्य कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त करना है परंतु उसकी सिद्धि न होनेसे सबका निरर्थकपना दिखाया है।।५।।
णाणं चरित्तसुद्धं, लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्धं ।
संजमसहिदो य तवो, थोवो वि महाफलो होइ।।६।। चारित्रसे शुद्ध ज्ञान, दर्शनसे शुद्ध लिंगधारण और संयमसे सहित तप थोड़ा भी हो तो भी वह महाफलसे युक्त होता है।।६।।
णाणं णाऊण णरा, केई विसयाइभावसंसत्ता।
हिंडंति चादुरगदिं, विसएसु विमोहिया मूढा ।।७।। जो कोई मनुष्य ज्ञानको जानकर भी विषयादिक भावमें आसक्त रहते हैं वे विषयोंमें मोहित रहनेवाले मूर्ख प्राणी चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करते रहते हैं।।७।।