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अष्टपाहुड प्राप्त हो गया है ऐसा कहा गया है, परंतु जो उन्मार्गको देख रहे हैं अर्थात् लक्ष्यसे भ्रष्ट हैं उनका ज्ञान भी निरर्थक है।
__ भावार्थ -- एक मनुष्य दर्शन मोहनीयका अभाव होनेसे श्रद्धा गुणके प्रकट हो जानेपर लक्ष्य -- प्राप्तव्य मार्गको देख रहा है, परंतु चारित्र मोहका तीव्र उदय होनेसे उस मार्गपर चलनेके लिए असमर्थ है तो भी कहा जाता है कि उसे मार्ग मिल गया, परंतु दूसरा मनुष्य अनेक शास्त्रोंका ज्ञाता होनेपर भी मिथ्यात्वके उदयके कारण गंतव्य मार्गको न देख उन्मार्गको ही देख रहा है तो ऐसे मनुष्यका वह भारी ज्ञान भी निरर्थक होता है।।१३।।
कुमयकुसुदपसंसा, जाणंता बहुविहाइं सत्थाणि।
सीलवदणाणरहिदा, ण हु ते आराधया होंति।।१४।। जो नाना प्रकारके शास्त्रोंको जानते हुए मिथ्यामत और मिथ्या श्रुतकी प्रशंसा करते हैं तथा शील, व्रत और ज्ञानसे रहित हैं वे स्पष्ट ही आराधक नहीं हैं।।१४।।
रूवसिरिगव्विदाणं, जुव्वणलावण्णकंतिकलिदाणं।
सीलगुणवज्जिदाणं, णिरत्थयं माणुसं जम्मं ।।१५।। जो मनुष्य सौंदर्यरूपी लक्ष्मीसे गर्वीले तथा यौवन, लावण्य और कांतिसे युक्त हैं, किंतु शीलगुणसे रहित हैं उनका मनुष्य जन्म निरर्थक है।।१५।।
वायरणछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु।
वेदेऊण सुदेसु य, तेसु सुयं उत्तमं सीलं।।१६।। कितने ही लोग व्याकरण, छंद, वैशेषिक, व्यवहार -- गणित तथा न्यायशास्त्रोंको जानकर श्रुतके धारी बन जाते हैं परंतु उनका श्रुत तभी श्रुत है जब उनमें उत्तम शील भी हो।।१६।।
सीलगुणमंडिदाणं, देवा भवियाण वल्लहा होति।
सुदपारयपउरा णं, दुस्सीला अप्पिला लोए।।१७।। जो भव्य पुरुष शीलगुणसे सुशोभित हैं उनके देव भी प्रिय होते हैं अर्थात् देव भी उनका आदर करते हैं और जो शीलगुणसे रहित हैं वे श्रुतके पारगामी होकर भी तुच्छ -- अनादरणीय बने रहते हैं।।१७।।
भावार्थ -- शीलवान जीवोंकी पूजा प्रभावना मनुष्य तो करते ही हैं, परंतु देव भी करते देखे जाते हैं। परंतु दुःशील अर्थात् खोटे शीलसे युक्त मनुष्योंको अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता होनेपर भी कोई पूछता नहीं है, वे सदा तुच्छ बने रहते हैं। यहाँ 'अल्प'का अर्थ संख्यासे अल्प नहीं किंतु तुच्छ अर्थ है। संख्याकी अपेक्षा तो दुःशील मनुष्य ही अधिक हैं, शीलवान नहीं।