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________________ ३२२ कुदकुद-भारता परमाणुपमाणं वा, परदब्वे रदि हवेदि मोहादो। सो मूढो अण्णाणी, आदसहावस्स विवरीदो।।६९।। जिसकी अज्ञानवश परद्रव्यमें परमाणुप्रमाण भी रति है वह मूढ़ है, अज्ञानी है और आत्मस्वभावसे विपरीत है।।६९।। अप्पा झायंताणं, सणसुद्धीण दिढचरित्ताणं। होदि धुवं णिव्वाणं, विसएसु विरत्तचित्ताणं।।७०।। जो आत्माका ध्यान करते हैं, जिनके सम्यग्दर्शनकी शुद्धि विद्यमान है, जो दृढ़ चारित्रके धारक हैं तथा जिनका चित्त विषयोंसे विरक्त है ऐसे पुरुषोंको निश्चित ही निर्वाण प्राप्त होता है।।७० ।। जेण रागे परे दव्वे, संसारस्स हि कारणं। तेणावि जोइणो णिच्च, कुज्जा अप्पे सभावणा।।७१।। जिस स्त्री आदि पर्यायसे परद्रव्यमें राग होनेपर वह राग संसारका कारण होता है योगी उसी पर्यायसे निरंतर आत्मामें आत्मभावना करता है।।७१।। भावार्थ -- साधारण मनुष्य स्त्रीको देखकर उसमें राग करता है जिससे उसके संसारकी वृद्धि होती है, परंतु योगी -- ज्ञानी मनुष्य स्त्रीको देखकर विचार करता है कि जिस प्रकार मेरा आत्मा अनंत केवलज्ञानमय है उसी प्रकार इस स्त्रीका आत्मा भी अनंत केवलज्ञानमय है। यह स्त्री और मैं -- दोनोंही केवलज्ञानमय हैं। इस कारण यह स्त्री भी मेरी आत्मा है, मुझसे पृथक् इसमें है ही क्या? जिससे स्नेह करूँ। ___ (पं. जयचंद्रजीने अपनी वचनिकामें 'जेण रागो परे दव्वे' ऐसा पाठ स्वीकृत कर यह अर्थ प्रकट किया है -- चूँकि परद्रव्यसंबंधी राग संसारका कारण है इसलिए रोगीको निरंतर आत्मामें ही भावना करनी चाहिए। परंतु इस अर्थमें 'तेणावि -- तेनापि' यहाँ तेन शब्दके साथ दिये हुए अपि शब्दकी निरर्थकता सिद्ध होती है।) जिंदाए य पसंसाए, दुक्खे य सुहएसु च। सत्तूणं चेव बंधूणं, चारित्तं समभावदो।।७२।। निंदा और प्रशंसा, दुःख और सुख तथा शत्रु और मित्रमें समभावसे ही चारित्र होता है।।७२।। यह ध्यानके योग्य समय नहीं है इस मान्यताका निराकरण करते हैं -- चरियावरिया वदसमिदिवज्जिया सुद्धभावपब्भट्टा। केई जंपंति णरा, ण हु कालो झाणजोयस्स।।७३।। जो चारित्रको आवरण करनेवाले चारित्रमोहनीय कर्मसे युक्त हैं, व्रत और समितिसे रहित हैं तथा शुद्ध भावसे च्युत हैं ऐसे कितने ही मनुष्य कहते हैं कि यह ध्यानरूप योगका समय नहीं है अर्थात् इस समय
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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