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अष्टपाहुड
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सुख वासित ज्ञान दुःख उत्पन्न होनेपर नष्ट हो जाता है इसलिए योगीको यथाशक्ति आत्माको दुःखसे वासित करना चाहिए । । ६२ ।।
आहारासणणिद्दजियं च काऊण जिणवरमएण ।
झायव्वोणियअप्पा, णाऊण गुरुपसाएण ।। ६३ ।।
आहार, आसन और निद्राको जीतकर जिनेंद्र देवके मतानुसार गुरुओंके प्रसादसे निज आत्माको जानना चाहिए और उसीका ध्यान करना चाहिए । । ६३ । ।
अप्पा चरित्तवंतो, दंसणणाणेण संजुदो अप्पा |
सो झायव्वो णिच्चं, णाऊण गुरुपसाएण ।। ६४ ।।
आत्मा चारित्रसे सहित है, आत्मा दर्शन और ज्ञानसे युक्त है, इस प्रकार गुरुके प्रसादसे जानकर उसका नित्य ही ध्यान करना चाहिए ।। ६४ ।।
दुक्खेणज्जइ अप्पा, अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं ।
भाविय सहावपुरिसो, विसएसु विरुच्चए दुक्खं । । ६५ ।।
प्रथम तो आत्मा दुःखसे जाना जाता है, फिर जानकर उसकी भावना दुःखसे होती है, फिर आत्मस्वभावकी भावना करनेवाला पुरुष दुःखसे विषयोंमें विरक्त होता है । । ६५ ।।
तामण ज्जइ अप्पा, विसएसु णरो पवट्टए जाम ।
विसए विरत्तचित्तो, जोई जाणेइ अप्पाणं । । ६६।।
जब तक मनुष्य विषयोंमें प्रवृत्ति करता है तब तक आत्मा नहीं जाना जाता अर्थात् आत्मज्ञान नहीं होता । विषयोंसे विरक्तचित्त योगी ही आत्माको जानता है । । ६६ ।।
अप्पा गाऊण णरा, केई सब्भावभावपब्भट्टा ।
हिंडंति चाउरंगं, विसएसु विमोहिया मूढा । । ६७।।
आत्माको जानकर भी कितने ही लोग सद्भावकी भावनासे -- निजात्मभावनासे भ्रष्ट होकर विषयोंसे मोहित होते हुए चतुर्गतिरूप संसारमें भटकते रहते हैं । । ६७ ।।
विसयविरत्ता, अप्पा णाऊण भावणासहिया ।
छंडति चाउरंगं, तवगुणजुत्ता ण संदेहो । । ६८ ।।
और जो विषयोंसे विरक्त होते हुए आत्माको जानकर उसको भावनासे सहित रहते हैं वे तपरूपी गुण अथवा तप और मूलगुणोंसे युक्त होकर चतुरंग -- चतुर्गतिरूप संसारको छोड़ देते हैं इसमें संदेह नहीं है ।।६८ ।।