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________________ २पण जो श्रेष्ठ मुनि मोक्षको जानता है, देखता है और उसका विचार करता है वह क्या अल्पसारवाले मनुष्यों और देवोंके सुखोंमें मोहको प्राप्त हो सकता है? ।।१३१।। उत्थरइ जाण जरओ, रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं। इंदियबलं ण वियलइ, ताव तुमं कुणइ अप्पहियं ।।१३२।। हे मुनि! जब तक बुढ़ापा आक्रमण नहीं करता है, रोगरूपी अग्नि जब तक शरीररूपी कुटीको नहीं जलाती है और इंद्रियोंका बल जबतक नहीं घटता है तबतक तू आत्माका हित कर ले।।१३२।। छज्जीव सडायदणं, णिच्चं मणवयणकायजोएहिं। कुरु दय परिहर मुणिवर, भावि अपुव्वं महासत्त।।१३३।। हे उत्कृष्ट धैर्यके धारक मुनिवर! तू मन वचन कायरूप भोगोंसे निरंतर छह कायके जीवोंकी दया कर। छह अनायतनोंका त्याग कर और अपूर्व आत्मभावनाका चिंतन कर।।१३३ ।। दसविहपाणाहारो, अणंतभवसायरे नमतेण। भोयसुहकारणटुं, कदो य तिविहेण सयलजीवाणं ।।१३४ ।। हे मुनि! अनंत संसारसागरमें घूमते हुए तूने भोग सुखके निमित्त मन वचन कायसे समस्त जीवोंके दस प्रकारके प्राणोंका आहार किया है।।१३४।।। पाणिवहेहि महाजस, चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि। उप्पजंत मरंतो, पत्तोसि णिरंतरं दुक्खं ।।१३५ ।। हे महायशके धारक मुनि! प्राणिवधके कारण तूने चौरासी लाख योनियोंमें उत्पन्न होते और मरते हुए निरंतर दुःख प्राप्त किया है।।१३५ ।। जीवाणमभयदाणं, देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं। कल्लाणसुहणिमित्तं, परंपरा तिविहसुद्धीए।।१३६।। हे मुनि! तू परंपरासे तीर्थंकरोंके कल्याणसंबंधी सुखके लिए मन वचन कायकी शुद्धतासे प्राणीभूत अथवा सत्त्व नामधारक समस्त जीवोंको अभयदान दे।।१३६।। असियसय किरियवाई, अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तट्ठी अण्णाणी, वेणइया होंति बत्तीसा।।१३७।। क्रियावादियोंके एकसौ अस्सी, अक्रियावादियोंके चौरासी, अज्ञानियोंके सड़सठ और वैनयिकोंके बत्तीस भेद हैं। इस प्रकार सब मिलाकर मिथ्यादृष्टियोंके ३६३ भेद हैं।।१३७ ।। ण मुयइ पयडि अभव्वो, सुट्ठ वि आयण्णिऊण जिणधम्म। गुडदुद्धं पिवंता, ण पण्णया णिव्विसा होति।।१३८।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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