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भारत
हे मुनि! तू पाँच परमेष्ठियोंका ध्यान कर, जो कि मंगलरूप है, चार शरणरूप हैं, लोकोत्तम हैं, मनुष्य देव और विद्याधरोंके द्वारा पूजित हैं, आराधनाओंके स्वामी है और वीर हैं ।।१२४ ।।
णाणमयविमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण।
वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होति ।।१२५ ।। जो भव्य जीव अपने उत्तम भावसे ज्ञानमय निर्मल शीतल जलको पीकर व्याधि, बुढ़ापा, मरण, वेदना और दाहसे विमुक्त होते हुए सिद्ध होते हैं।।१२५ ।।
जह बीयम्मि य दड्डे, ण वि रोहइ अंकुरो य महिवीढे।
तह कम्मबीयदड्डे, भवंकुरो भावसवणाणं ।।१२६।। जिस प्रकार बीज जल जानेपर पृथिवीपृष्ठपर अंकुर नहीं उगता है उसी प्रकार कर्मरूपी बीजके जल जानेपर भावलिंगी मुनियोंके संसाररूपी अंकुर नहीं उगता है।। १२६ ।।
भावसवणो वि पावइ, सुक्खाइं दुहाई दव्वसवणो य।
इय णाउं गुणदोसे, भावेण य संजुदो होह ।।१२७ ।। भावश्रमण -- भावलिंगी मुनि सुख पाता है और द्रव्यश्रमण -- द्रव्यलिंगी मुनि दुःख पाता है। इस प्रकार गुण और दोषोंको जानकर हे मुनि! तू भावसहित संयमी बन।।१२७ ।।
तित्थयरगणहराइं, अब्भुदयपरंपराइं सोक्खाई।
पावंति भावसहिआ, संखेवि जिणेहिं वज्जरियं ।।१२८ ।। भावसहित मुनि, अभ्युदयकी परंपरासे युक्त तीर्थंकर, गणधर आदिके सुख पाते हैं ऐसा संक्षेपसे जिनेंद्रदेवने कहा है।।१२८ ।।
ते धण्णा ताण णमो, सणवरणाणचरणसुद्धाणं।
भावसहियाण णिच्चं, तिविहेण पणटुमायाणं ।।१२९ ।। वे मुनि धन्य हैं और उन मुनियोंको मेरा मन वचन कायसे निरंतर नमस्कार हो जो कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे शुद्ध हैं, भावसहित हैं तथा जिनकी माया नष्ट हो गयी है।।१२९ ।।
इड्मितुलं विउब्विय, किंणरकिंपुरिसअमरखयरेहि।
तेहिं वि ण जाइ मोहं, जिणभावणभाविओ धीरो।।१३०।। जिनभावनासे सहित धीर वीर मुनि किंनर, किंपुरुष, कल्पवासी देव और विद्याधरोंके द्वारा विक्रियासे दिखायी हुई अतुल्य ऋद्धिको देखकर उनके द्वारा भी मोहको प्राप्त नहीं होता।।१३० ।।
किं पुण गच्छइ मोहं, णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं। जाणंतो पस्संतो, चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो।।१३१।।