SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभव्य जीव जिनधर्मको अच्छी तरह सुनकर भी अपने स्वभावको -- मिथ्यात्वको नहीं छोड़ता है, सो ठीक ही है, क्योंकि गुड़मिश्रित दूधको पीते हुए भी साँप विषरहित नहीं होते हैं । । १३८ । । मिच्छत्तछण्णदिट्ठी, दुद्धीए दुम्मएहिं दोसेहिं । धम्मं जिणपण्णत्तं, अभव्वजीवो ण रोचेदि । । १३९ । । जिसकी दृष्टि मिथ्यात्वसे आच्छादित है ऐसा अभव्य जीव मिथ्यामतरूपी दोषोंसे उत्पन्न हुई दुर्बुद्धिके कारण जिनोपदिष्ट धर्मका श्रद्धान नहीं करता है । । १३९ ।। कुच्छियधम्मम्मि रओ, कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो । कुच्छियतवं कुणतो, कुच्छियगइभायणं होई । । १४०।। कुत्सित धर्ममें लीन, कुत्सित पाखंडियोंकी भक्तिसे सहित और कुत्सित तप करनेवाला मनुष्य कुत्सित गतिका पात्र होता है -- नरकादि खोटी गतियोंमें उत्पन्न होता है । । १४० ।। इय मिच्छत्तावासे, कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो । भमिओ अणाइकालं, संसारे धीर चिंतेहि । । १४१ ।। इस प्रकार मिथ्यात्वके निवासभूत संसारसे मिथ्यानय और मिथ्याशास्त्रोंसे मोहित हुआ जीव अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है। हे धीर मुनि ! तू ऐसा विचार कर । । १४१ ।। पासंडि तिण्णिसया, तिसट्टिभेया उमग्ग मुत्तूण । रुंभइ मणु जिणमग्गे, असप्पलावेण किं बहुणा । । १४२ । । हे जीव ! तू तीनसौ त्रेसठ भेदरूप पाखंडियोंके उन्मार्गको छोड़कर जिनमार्गमें अपना मन रोक - स्थिर कर । निष्प्रयोजन बहुत कथन करनेसे क्या लाभ? । । १४२ । । ववमुको सवओ, दंसणमुक्को य होइ चलसवओ । सवओ लोयअपुज्जो, लोउत्तरयम्मि चलसवओ । । १४३ । । चलता इस लोकमें जीवरहित शरीर शव कहलाता है और सम्यग्दर्शनसे रहित जीव चल शव फिरता मुर्दा कहलाता है। इनमेंसे शव इस लोकमें अपूज्य है और चल शव -- मिथ्यादृष्टि परलोकमें अपूज्य है ।। १४३ ।। जह तारयाण चंदो, मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहिओ तह सम्मत्तो, रिसिसावय दुविहधम्माणं । । १४४ ।। जिस प्रकार समस्त ताराओंमें चंद्रमा और समस्त मृगसमूहमें सिंह प्रधान है उसी प्रकार मुनि और श्रावक संबंधी दोनों प्रकारके धर्मोंमें सम्यग्दर्शन प्रधान है। । १४४ ।। --
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy