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अष्टपाहुड ___मद, राग, द्वेष, मोह, क्रोध और लोभ जिसके आधीन हो गये हैं और जो पाँच महाव्रतोंको धारण करता है ऐसा महामुनि आयतन कहा गया है।।५।।
सिद्धं जस्स सदत्थं, विसुद्धझाणस्स णाणजुत्तस्स।
सिद्धायदणं सिद्धं, मुणिवरवसहस्स मुणिदत्थं ।।६।। जो विशुद्ध ध्यान तथा केवलज्ञानसे युक्त है ऐसे जिस मुनिश्रेष्ठके शुद्ध आत्माकी सिद्धि हो गयी है उस समस्त पदार्थोंको जाननेवाले केवलज्ञानको सिद्धायतन कहा गया है।।६।।
बुद्धं जं बोहंतो, अप्पाणं चेदयाइं अण्णं च।
पंचमहव्वयसुद्धं, णाणमयं जाण चेदिहरं ।।७।। जो आत्माको ज्ञानस्वरूप तथा दूसरे जीवोंको चैतन्यस्वरूप जानता है ऐसे पाँच महाव्रतोंसे शुद्ध और ज्ञानसे तन्मय मुनिको हे भव्य! तू चैत्यगृह जान।।७।।
चेइयबंधं मोक्खं, दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स।
चेइहरं जिणमग्गे, छक्कायहियंकरं भणियं ।। ८ ।। बंध मोक्ष दु:ख ओर सुखका जिस आत्माको ज्ञान हो गया है वह चैत्य है, उसका घर चैत्यगृह कहलाता है तथा जिनमार्गमें छहकायके जीवोंका हित करनेवाला संयमी मुनि चैत्यगृह कहा गया है।।८।।
सपरा जंगमदेहा, सणणाणेण सुद्धचरणाणं।
णिग्गंथ वीयरागा, जिणमग्गे एरिसा पडिमा।।९।। दर्शन ओर ज्ञानसे पवित्र चारित्रवाले निष्परिग्रह वीतराग मुनियोंका जो अपना तथा दूसरेका चलता फिरता शरीर है वह जिनमार्गमें प्रतिमा कहा गया है।।९।।
जं चरदि सुद्धचरणं, जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं।
सा होइ वंदणीया, णिग्गंथा संजदा पडिमा।।१०।। दंसण अणंत णाणं, अणंतवीरिय अणंतसुक्खा य। सासयसुक्ख अदेहा, मुक्का कम्मट्ठबंधेहिं।।११।। णिरुवममचलमखोहा, णिम्मिविया जंगमेण रूवेण।
सिद्धठाणम्मि ठिया, वोसरपडिमा धुवा सिद्धा।। १२।। जो अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुखसे सहित है, शाश्वत अविनाशी सुखसहित हैं, शरीररहित हैं, आठ कोंके बंधनसे रहित हैं, उपमारहित हैं, चंचलतारहित हैं, क्षोभरहित हैं, जंगमरूपसे निर्मित हैं और लोकाग्रभागरूप सिद्धस्थानमें स्थित हैं ऐसे शरीररहित सिद्ध परमेष्ठी स्थावर प्रतिमा हैं ।।११-१२।।