________________
२७८
कुंदकुंद-भारती दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संजमं सुधम्मं च।
णिग्गंथं णाणमयं, जिणमग्गे दंसणं भणियं ।।१३।। जो सम्यक्त्वरूप, संयमरूप, उत्तमधर्मरूप, निग्रंथरूप एवं ज्ञानमय मोक्षमार्गको दिखलाता है ऐसे मुनिमार्गको दिखलाता है ऐसे मुनिके रूपको जिनमार्गमें दर्शन कहा है।।१३।।
जह फुल्लं गंधमयं, भवदि हु खीरं घियमयं चावि।
तह दंसणं हि सम्मं, णाणमयं होइ रूवत्थं ।।१४।। जिस प्रकार फूल गंधमय और दूध घृतमय होता है उसी प्रकार दर्शन अंतरंगमें सम्यग्ज्ञानमय है और बहिरंगमें मुनि, श्रावक और आर्यिकाके वेषरूप है।।१४।।
जिणबिंबं णाणमयं, संजमसुद्धं सुवीयरागं च।
जं देइ दिक्खसिक्खा, कम्मक्खयकारणे सुद्धा।।१५।। जो ज्ञानमय है, संयमसे शुद्ध है, वीतराग है तथा कर्मक्षयमें कारणभूत शुद्ध दीक्षा और शिक्षा देता है ऐसा आचार्य जिनबिंब कहलाता है।।१५।।
तस्स य करह पणामं, सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं।
जस्स च दंसण णाणं, अत्थि धुवं चेयणाभावो।।१६।। जिसके नियमसे दर्शन, ज्ञान और चेतनाभाव विद्यमान है उस आचार्यरूप जिनबिंबको प्रणाम - करो, सब प्रकारसे उसकी पूजा करो और शुद्ध प्रेम करो।।१६।।
तववयगुणेहिं सुद्धो, जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं।
अरहंतमुद्द एसा, दायारी दिक्खसिक्खा य।।१७।। जो तप, व्रत और उत्तरगुणोंसे शुद्ध है, समस्त पदार्थों को जानता देखता है तथा शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण करता है ऐसा आचार्य अर्हन्मुद्रा है, यही दीक्षा और शिक्षाको देनेवाली है।।१७ ।।
दढसंजममुद्दाए, इंदियमुद्दाकसायदढमुद्दा।
मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा भणिया।।१८।। दृढ़तासे संयम धारण करना सो संयम मुद्रा है, इंद्रियोंको विषयोंसे सन्मुख रखना सो इंद्रियमुद्रा है, कषायोंके वशीभूत न होना सो कषायमुद्रा है, ज्ञानके स्वरूपमें स्थिर होना सो ज्ञानमुद्रा है। जैन शास्त्रोंमें ऐसी जिनमुद्रा कही गयी है।।१८।।
संजमसंजुत्तस्स य, सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स।
णाणेण लहदि लक्खं, तम्हा णाणं च णायव्वं ।।१९।। संयमसहित तथा उत्तम ज्ञानयुक्त मोक्षमार्गका लक्ष्य जो शुद्ध आत्मा है वह ज्ञानसे ही प्राप्त किया