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कुदकुद-भारता
इस प्रकार वीतराग जिनेंद्रदेवने केवलज्ञानके द्वारा जिसका निरूपण किया था वह सम्यक्त्व तथा संयमके आश्रयरूप दोनों प्रकारका चारित्र मैंने संक्षेपसे कहा है।।४४ ।।
भावेह भावसुद्धं, फुडु रइयं चरणपाहुडं चेव।
लहु चउगइ चइऊणं, अइरेणऽपुणब्भवा होई।।४५।। हे भव्य जीवो! प्रकट रूपसे रचे हुए इस चारित्रपाहुड़का तुम शुद्ध भावोंसे चिंतन करो जिससे चतुर्गतिसे छूटकर शीघ्र ही पुनर्जन्मसे रहित हो जाओ-- जन्म-मरणकी व्यथासे छूटकर मुक्त हो जाओ।।४५ ।।
इस प्रकार चारित्रपाहुड़ पूर्ण हुआ।
बोधपाहुड बहुसत्थअत्थजाणे, संजमसम्मत्तसुद्धतवयरणे। वंदित्ता आयरिए, कसायमलवज्जिदे सुद्धे ।।१।। सयलजणबोहणत्थं, जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं।
वुच्छामि समासेण, छक्कायसुहंकरं सुणह ।।२।। जो बहुत शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले हैं, जिनका तपश्चरण संयम और सम्यक्त्वसे शुद्ध है, जो कषायरूपी मलसे रहित हैं और जो अत्यंत शुद्ध हैं ऐसे आचार्योंकी वंदना कर मैं जिनमार्गमें श्री जिनदेवके द्वारा जैसा कहा गया है तथा जो छह कायके जीवोंको सुख उपजानेवाला है ऐसा बोधपाहुड ग्रंथ समस्त जीवोंको समझानेके लिए संक्षेपसे कहूँगा। हे भव्य! तू उसे सुन।।१-२।।
आयदणं चेदिहरं, जिणपडिमा दंसणं च जिणबिंबं । भणियं सुवीयरायं, जिणमुद्दा णाणमदत्थं ।।३।। अरहंतेण सुदिटुं, जं देवं तित्थमिह य अरहंतं।
पावज्ज गुणविसुद्धा, इय णायव्वा जहाकमसो।।४।। आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, रागरहित जिनबिंब, जिनमुद्रा, आत्माके प्रयोजनभूत ज्ञान, देव, तीर्थ, अरहंत और गुणोंसे विशुद्ध दीक्षा ये ग्यारह स्थान जैसे अरहंत भगवान्ने कहे हैं वैसे यथाक्रमसे जाननेयोग्य हैं।।३-४ ।।।
मय राय दोस मोहो, कोहो लोहो य जस्स आयत्ता। पंच महव्वयधारी, आयदणं महरिसी भणियं ।।५।।