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कुंदकुद-भारती ऐसा पूर्वसूत्रमें कहा गया है।।१६२।।
अप्पा परप्पयासो, तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं।
ण हवदि परदव्वगयं, दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।।१६३।। यदि आत्मा परप्रकाशक ही है तो दर्शन आत्मासे भिन्न होगा क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत नहीं होता ऐसा पहले कहा गया है।।१६३ ।।
णाणं परप्पयासं, ववहारणयेण दंसणं तम्हा।
अप्पा परप्पयासो, ववहारणयेण दंसणं तम्हा।।१६४।। व्यवहारनयसे ज्ञान परप्रकाशक है इसलिए दर्शन परप्रकाशक है और आत्मा व्यवहारनयसे परप्रकाशक है इसलिए दर्शन परप्रकाशक है।।१६४ ।।
णाणं अप्पपयासं, णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।
अप्पा अप्पपयासो, णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।।१६५।। निश्चयनयसे ज्ञान स्वप्रकाशक है इसलिए दर्शन स्वप्रकाशक है और निश्चयनयसे आत्मा स्वप्रकाशक है इसलिए दर्शन स्वप्रकाशक है।।१६५ ।।
अप्पसरूवं पेच्छदि, लोयालोयं ण केवली भगवं।
जइ कोइ भणइ एवं, तस्स य किं दूसणं होइ।।१६६।। केवली भगवान् निश्चयसे आत्मस्वरूपको देखते हैं, लोक-अलोकको नहीं देखते हैं, यदि ऐसा कोई कहता है तो उसे क्या दूषण है? अर्थात् नहीं है।।१६६।।
प्रत्यक्ष ज्ञानका वर्णन मुत्तममुत्तं दव्वं, चेयणमियरं सगं च सव्वं च।
पेच्छंतस्स दुणाणं, पच्चक्खमणिंदियं होइ।।१६७।। मूर्त, अमूर्त, चेतन, अचेतन द्रव्य तथा स्व और समस्त परद्रव्यको देखनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष एवं अतींद्रिय होता है।।१६७।।
परोक्ष ज्ञानका वर्णन पुव्वुत्तसयलदव्वं, णाणागुणपज्जएण संजुत्तं ।
जो ण य पेच्छइ सम्मं, परोक्खदिट्ठी हवे तस्स।।१६८।। जो नाना गुण और पर्यायोंसे संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्योंको अच्छी तरह नहीं देखता है उसकी दृष्टि परोक्ष दृष्टि है अर्थात् उसका ज्ञान परोक्ष ज्ञान है।।१६८।।