________________
नियमसार इस प्रकार श्री कुंदकुंदाचार्य विरचित नियमसार ग्रंथमें निश्चयपरमावश्यकाधिकार नामका
ग्यारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ।।११।।
***
१२ शुद्धोपयोगाधिकार
निश्चय और व्यवहार नयसे केवलीकी व्याख्या जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणएण केवली भगवं।
केवलणाणी जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।१५९।। व्यवहार नयसे केवली भगवान् सबको जानते और देखते हैं, परंतु निश्चय नयसे केवलज्ञानी अपने आपको जानते देखते हैं। ।१५९।।
केवलज्ञान और केवलदर्शन साथ साथ होते हैं जुगवं वट्टइ णाणं, केवलणाणिस्स दंसणं च तहा।
दिणयरपयासतापं, जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।१६०।। जिसप्रकार सूर्यका प्रकाश और प्रताप एक साथ वर्तता है उसी प्रकार केवलज्ञानीका ज्ञान और दर्शन एकसाथ वर्तता है ऐसा जानना चाहिए।
भावार्थ -- छद्मस्थ जीवोंके पहले दर्शन होता है उसके बाद ज्ञान होता है, परंतु केवली भगवान्के दर्शन और ज्ञान दोनों साथही होते हैं।।१६० ।।
___ ज्ञान और दर्शनके स्वरूपकी समीक्षा णाणं परप्पयासं, दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव।
अप्पा सपरपयासो, होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि।।१६१।। ज्ञान परप्रकाशक है, दर्शन स्वप्रकाशक है और आत्मा स्वपरप्रकाशक है ऐसा यदि तू वास्तवमें मानता है (तो यह तेरी विरुद्ध मान्यता है।) ।।१६१।।।
णाणं परप्पयासं, तइया णाणेण दंसणं भिण्णं।
ण हवदि परदव्वगयं, दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।।१६२।। यदि ज्ञान परप्रकाशक ही है तो दर्शन ज्ञानसे भिन्न सिद्ध होगा क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत नहीं होता