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कुंदकुंद-भारती
जो वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान और वचनमय आलोचना है उस सबको तू स्वाध्याय
जान।
भावार्थ -- प्रतिक्रमण आदिके पाठ बोलना स्वाध्यायमें गर्भित हैं।।१५३ ।।
जदि सक्कदि कादं जे, पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं ।
सत्तिविहीणो जा जइ, सद्दहणं चेव कायव्वं ।।१५४।। हे मुनिशार्दूल! यदि करनेकी सामर्थ्य है तो तुझे ध्यानमय प्रतिक्रमणादि करना चाहिए और यदि शक्तिसे रहित है तो तुझे तब तक श्रद्धान ही करना चाहिए।।१५४ ।।
जिणकहियपरमसुत्ते, पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं। __मोणव्वएण जोई, णियकज्जं साहये णिच्चं ।।१५५।।
जिनेंद्रदेवके द्वारा कहे हुए परमागममें प्रतिक्रमणादिकी अच्छी तरह परीक्षा कर योगीको निरंतर मौनव्रतसे निजकार्य सिद्ध करना चाहिए।।१५५ ।।
विवाद वर्जनीय है णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी।
तम्हा वयणविवादं, सगपरसमएहिं वज्जिज्जो।।१५६।। नाना जीव हैं, नाना कर्म हैं और नाना प्रकारकी लब्धियाँ हैं, इसलिए स्वर्मियों और परधर्मियोंके साथ वचनसंबंधी विवाद वर्जनीय है -- छोड़नेके योग्य है।।१५६ ।।
सहजतत्त्वकी आराधनाकी विधि लभ्रूणं णिहि एक्को, तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्तें।
तह णाणी णाणणिहिं, भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ।।१५७।। जिस प्रकार कोई एक मनुष्य निधिको पाकर स्वजन्मभूमिमें स्थित हो उसका फल भोगता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव ज्ञानरूपी निधिको पाकर परसमूहको छोड़ उसका अनुभव करता है।।१५७ ।।
सव्वे पुराणपुरिसा, एवं आवासयं य काऊण।
अपमत्तपहुदिठाणं, पडिवज्ज य केवली जादा।।१५८।। समस्त पुराणपुरुष इस प्रकार आवश्यक कर अप्रमत्तादिक स्थानोंको प्राप्त करके केवली हुए हैं।
भावार्थ -- जितने पुराणपुरुष अबतक केवली हुए हैं वे सब पूर्वोक्त विधिसे प्रमत्तविरत नामक छठवें गुणस्थानमें आवश्यक कर्मको करके अप्रमत्तादि गुणस्थानोंको प्राप्त हुए हैं और तदनंतर केवली हुए हैं।।१५८ ।।