SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार २४९ जीवका श्रामण्यगुण -- मुनिधर्म पूर्ण होता है।।१४७ ।। __ आवश्यक करनेकी प्रेरणा आवासएण हीणो, पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो। पुवुत्तकमेण पुणो, तम्हा आवासयं कुज्जा।।१४८।। क्योंकि आवश्यकसे रहित साधु चारित्रसे अत्यंत भ्रष्ट है इसलिए पूर्वोक्त क्रमसे आवश्यक करना चाहिए।।१४८।। आवासएण जुत्तो, समणो सो होदि अंतरंगप्पा। आवासय परिहीणो, समणो सो होदि बहिरप्पा।।१४९।। जो साधु आवश्यक कर्मसे युक्त है वह अंतरात्मा है और जो आवश्यक कर्मसे रहित है वह बहिरात्मा है।।१४९।। अंतरबाहिरजप्पे, जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा। जप्पेसु जो ण वट्टइ, सो उच्चइ अंतरंगप्पा।।१५०।। जो साधु अंतर्जल्प और बाह्य जल्पमें वर्तता है वह बहिरात्मा है और जो (किसी भी प्रकारके) जल्पोंमें नहीं वर्तता है वह अंतरात्मा कहा जाता है।।१५० ।। जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सोवि अंतरंगप्पा। झाणविहीणो समणो, बहिरप्पा इदि विजाणीहि ।।१५१।। जो धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानमें परिणत है वह भी अंतरात्मा है। ध्यानविहीन साधु बहिरात्मा है ऐसा जान।।१५१।। प्रतिक्रमण आदि क्रियाओंकी सार्थकता पडिकमणपहुदि किरियं, कुव्तो णिच्छयस्स चारित्तं । तेण द विरागचरिए, समणो अब्भुट्टिदो होदि ।।१५२।। प्रतिक्रमण आदि क्रियाओंको करनेवालेके निश्चय चारित्र होता है और उस निश्चय चारित्रसे साधु वीतराग चारित्रमें उद्यत होता है। भावार्थ -- यहाँ प्रतिक्रमण आदि क्रियाओंकी सार्थकता बतलाते हुए कहा गया है कि जो साधु प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा आलोचना आदि क्रियाओंको करता रहता है उसीके निश्चय चारित्र होता है और उस निश्चय चारित्रके द्वारा ही साधु वीतराग चारित्रमें आरूढ़ होता है।।१५२।। वयणमयं पडिकमणं, वयणमयं पच्चखाण णियमं च । आलोयण वयणमयं, तं सव्वं जाण सज्झाउं।।१५३।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy