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________________ नियमसार लोयालोयं जाणइ, अप्पाणं णेव केवली भगवं । जइ कोइ भइ एवं, तस्स य किं दूसणं होई । । १६९।। केवली भगवान् (व्यवहारसे) लोकालोकको जानते हैं, आत्माको नहीं, ऐसा यदि कोई कहता है। तो क्या उसका दूषण है? अर्थात् नहीं है । । १६९ ।। 1 णाणं जीवसरूवं, तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा । २५३ अप्पाणं ण वि जाणदि, अप्पादो होदि विदिरित्तं । । १७० ।। ज्ञान जीवका स्वरूप है इसलिए आत्मा आत्माको जानता है, यदि ज्ञान आत्माको न जाने तो वह आत्मासे भिन्न -- पृथक् सिद्ध हो । । १७० ।। अप्पाणं विणु णाणं, णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो । तम्हा सपरपयासं, णाणं तह दंसणं होदि । । १७१ । । आत्माको ज्ञान जानो और ज्ञान आत्मा है ऐसा जानो, इसमें संदेह नहीं है इसलिए ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्वपरप्रकाशक हैं । । १७१ ।। केवलज्ञानीके बंध नहीं है जाणतो पस्संतो, ईहा पुव्वं ण होइ केवलिणो । केवलणाणी तम्हा, तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।।१७२ ।। जाते देखते हुए केवल के पूर्वमें इच्छा नहीं होती इसलिए वे केवलज्ञानी अबंधक -- बंधरहित कहे गये हैं। भावार्थ -- बंधका कारण इच्छा है, मोह कर्मका सर्वथा क्षय होनेसे केवलीके जानने देखनेके पहले कोई इच्छा नहीं होती और इच्छाके बिना उनके बंध नहीं होता । । १७२ ।। केवलीके वचन बंधके कारण नहीं हैं परिणामपुव्ववयणं, जीवस्स य बंधकारणं होई । परिणामरहियवयणं, तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो । । १७३ ।। PIA ईहापुव्वं वयणं, जीवस्स य बंधकारणं होई । ईहारहियं वयणं, तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो । । १७४ ।। परिणामपूर्वक -- अभिप्रायपूर्वक वचन जीवके बंधका कारण है। क्योंकि ज्ञानीका वचन परिणामरहित है इसलिए उसके बंध नहीं होता । । १७३ ।। इच्छापूर्वक वचन जीवके बंधका कारण होता है, क्योंकि ज्ञानी जीवका वचन इच्छारहित है।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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