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________________ २४६ भगवान् के शासनमें कहा गया है । । १३३ ।। कुदकुद-भारती इस तरह श्री कुंदकुंदाचार्य विरचित नियमसार ग्रंथ में परमसमाध्यधिकार नामक नौवाँ अधिकार समाप्त हुआ । । ९ ।। *** १० परमभक्त्यधिकार सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो । तस्स दुणिव्वुदिभत्ती, होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं । । १३४।। जो श्रावक अथवा मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें भक्ति करता है उसे निवृत् भक्ति -- मुक्तिकी प्राप्ति होती है ऐसा जिनेंद्र भगवान्ने कहा है । । १३४ ।। मोक्खंगयपुरिसाणं, गुणभेदं जाणिऊण तेसिंपि । जो कुदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं । । १३५ । । मोक्षको प्राप्त करनेवाले पुरुषोंके गुणभेदको जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है उसे भी निवृत्ति भक्ति -- मुक्तिकी प्राप्ति होती है ऐसा व्यवहारनयसे कहा गया है । । १३५ ।। मोक्खप अप्पाणं, ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती । ते दु जीवो पाव, असहायगुणं णियप्पाणं । । १३६ ।। मोक्षमार्गमें अपने आपके स्थापित कर जो निवृत्ति भक्ति -- मुक्ति की आराधना करता है उससे जीव असहाय -- स्वापेक्ष गुणोंसे युक्त निज आत्माको प्राप्त करता है । ।१३६ ।। रायादीपरिहारे, अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू । सो जोगभत्तित्तो, इदरस्स य कह हवे जोगो । । १३७ ।। जो साधु अपने आत्माको रागादिकके परित्यागमें लगाता है वह योगभक्तिसे युक्त है, अन्य साधुके योग कैसे हो सकता है? ।। १३७ ।। सव्वविअप्पाभावे, अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू | सो जोगभत्तित्तो, इदरस्स य किह हवे जोगो । । १३७ ।। जो साधु अपने आत्माको समस्त विकल्पोंके अभावोंमें लगाता है वह योग भक्ति से युक्त है, अन्य साधुके योग किस प्रकार हो सकता है ? । । १३८ ।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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