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________________ नियमसार २४७ योगका लक्षण विवरीयाभिणिवेसं, परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु। जो जंजदि अप्पाणं, णियभावे सो हवे जोगो।।१३९।। जो विपरीत अभिप्रायको छोड़कर जिनेंद्रदेव द्वारा कथित तत्त्वोंमें अपने आपको लगाता है उसका वह निजभाव ही योग है।।१३९।। उसहादिजिणवरिंदा, एवं काऊण जोगवरभत्तिं । णिव्वुदिसुहमावण्णा, तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।।१४०।। ऋषभादि जिनेंद्र इस प्रकार योगकी उत्तम भक्ति कर निर्वाणके सुखको प्राप्त हुए हैं इसलिए तू भी योगकी उत्तम भक्तिको धारण कर।।१४०।। इस प्रकार श्री कुंदकुंद स्वामी विरचित नियमसार ग्रंथमें परमभक्त्यधिकार नामका दसवाँ अधिकार समाप्त हुआ।।१०।। *** ११ निश्चयपरमावश्यकाधिकार आवश्यक शब्दकी निरुक्ति जो ण हवदि अण्णवसो, तस्स द कम्मं भणंति आवासं। कम्मविणासणजोगो, णिव्बुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो।।१४१।। जो अन्यके वशमें नहीं होता उसके कार्यको आवश्य (आवश्यक) कहते हैं। कर्मोंका नाश करनेवाला जो योग है वही निवृति -- निर्वाणका मार्ग है ऐसा कहा गया है।।१४१।। आवश्यक युक्तिका निरुक्तार्थ ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं त्ति बोधव्वा। जुत्ति त्ति उवाअंति य, णिरवयवो होदि णिज्जेत्ति।।१४२।। जो अन्यके वश नहीं है वह अवश है और अवशका जो कर्म है वह आवश्यक (आवश्य) है ऐसा | चाहिए। युक्ति इसका अर्थ उपाय है। आवश्यककी जो युक्ति है वह आवश्यक युक्ति है। इस तरह
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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