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________________ नियमसार आलोचनाके चार रूप आलोयणमालुंछणवियडीकरणं च भावसुद्धी य । चउविहमिह परिकहियं, आलोयणलक्खणं समए । । १०८ । । आलोचन, आलुंछन, अविकृतीकरण और भावशुद्धि इस तरह आगममें आलोचनाका लक्षण चार प्रकारका कहा गया है । । १०८ ।। आलोचनका स्वरूप जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणामं । आलोयणमिदि जाणह, परमजिणंदस्स उवएसं । । १०९ । । जो जीव अपने परिणामको समभावमें स्थापित कर अपने आत्माको देखता है -- उसके वीतरागभावका चिंतन करता है वह आलोचन है ऐसा परम जिनेंद्रका उपदेश जानो । । १०९ ।। आलुंछनका स्वरूप कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीय परिणामो । साहीणो समभावो, आलुंछणमिदि समुद्दिद्वं । । ११० ।। कर्मरूप वृक्षका मूलच्छेद करनेमें समर्थ, स्वाधीन, समभावरूप जो अपना परिणाम है वह आलुंछन इस नामसे कहा गया है । . ११० ।। अविकृतीकरणका स्वरूप कम्मादो अप्पाणं, भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं । मज्झत्थभावणाए, वियडीकरणं त्ति विण्णेयं । । १११ । । २४१ जो मध्यस्थभावना कर्मसे भिन्न तथा निर्मलगुणोंके निवासस्वरूप आत्माकी भावना करता है उसकी वह भावना अविकृतीकरण है ऐसा जानना चाहिए । । १११ । । भावशुद्धिका स्वरूप मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहिं । । ११२ ।। भव्य जीवोंका मद, मान, माया और लोभसे रहित जो भाव है वह भावशुद्धि है ऐसा लोकालोकको देखनेवाले सर्वज्ञ भगवान्ने कहा है ।। ११२ ।। इस प्रकार श्री कुंदकुंदाचार्य विरचित नियमसार ग्रंथमें परमालोचनाधिकार नामका सातवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।।७।। ***
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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