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कुदकुद-भारता
सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मझं ण केणवि।
आसाए वोसरित्ता णं, समाहि पडिवज्जए।।१०४।। मेरा सब जीवोंमें साम्यभाव है, मेरा किसीके साथ वैर नहीं है। वास्तवमें आशाओंका परित्याग कर समाधि प्राप्त की जाती है।।१०४।।।
__ निश्चय प्रत्याख्यानका अधिकारी कौन है? णिक्कसायस्स दंतस्स, सूरस्स ववसायिणो।
संसारभयभीदस्स, पच्चक्खाणं सुहं हवे।।१०५।। जो निष्कषाय है, इंद्रियोंका दमन करनेवाला है, समस्त परिषहोंको सहन करनेमें शूरवीर है, उद्यमशील है तथा संसारके भयसे भीत है उसीके सुखमय प्रत्याख्यान -- निश्चय प्रत्याख्यान होता है।।
एवं भेदब्भासं, जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्च।
पच्चक्खाणं सक्कदि, धरिदे सो संजदो णियमा ।।१०६।। इस प्रकार जो निरंतर जीव और कर्मके भेदका अभ्यास करता है वह संयत -- साधु नियमसे प्रत्याख्यान धारण करनेको समर्थ है।।१०६।।
इस प्रकार श्री कुंदकुंदाचार्य विरचित नियमसार ग्रंथमें निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार नामका
छठवाँ अधिकार पूर्ण हुआ।।६।।
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परमालोचनाधिकार
आलोचना किसके होती है ? णोकम्मकम्मरहियं, विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं।
अप्पाणं जो झायदि, समणस्सालोयणं होदि।।१०७।। जो नोकर्म और कर्मसे रहित तथा विभावगुणपर्यायोंसे भिन्न आत्माका ध्यान करता है उस साधुके आलोचना होती है।।१०७।।