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कुदकुद-भारता
शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
निश्चय प्रायश्चित्तका स्वरूप वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो।
सो हवदि पायछित्तं, अणवरयं चेव कायव्यो।।११३।। व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम तथा इंद्रियनिग्रहरूप जो भाव है वह प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त निरंतर करनेयोग्य है।।११३।।।
कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं।
पायच्छित्तं भणिदं, णियगुणचिंता य णिच्छयदो।।११४।। क्रोधादिक स्वकीय विभाव भावोंके क्षय आदिककी भावनामें लीन रहना तथा निजगुणोंका चिंतन करना निश्चयसे प्रायश्चित्त कहा गया है।।११४ ।।
कषायोंपर विजय प्राप्त करनेका उपाय कोहं खमया माणं, समद्दवेणज्जवेण मायं च।
संतोसेण य लोह, जयदि खु ए चहुविहकसाए।।११५ ।। क्रोधसे क्षमाको, मानको स्वकीय मार्दव धर्मसे, मायाको आर्जवसे और लोभको संतोषसे इस तरह चार कषायोंको जीव निश्चयसे जीतता है।।११५ ।।
निश्चय प्रायश्चित्त किसके होता है? उक्किट्ठो जो बोहो, णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं।
जो धरइ मुणी णिच्चं, पायच्छित्तं हवे तस्स।।११६।। उसी आत्माका जो उत्कृष्ट बोध, ज्ञान अथवा चिंतन है उसे जो मुनि निरंतर धारण करता है उसके प्रायश्चित्त होता है।।११६ ।। ।
किं बहुणा भणिएण दु, वरतवचरणं महेसिणं सव्वं ।
पायच्छित्तं जाणह, अणेयकम्माण खयहेऊ।।११७।। बहुत कहनेसे क्या? महर्षियोंका जो उत्कृष्ट तपश्चरण है उस सबको तू अनेक कर्मोंके क्षयका कारण प्रायश्चित्त जान।।११७ ।।