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नियमसार
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शुद्ध भावाधिकार
हेय उपादेय तत्त्वोंका वर्णन
जीवादिबहित्तच्चं, हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा । कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो ।। ३८ ।।
जीवादि बाह्यतत्त्व हैं -- छोड़नेके योग्य हैं और कर्मरूप उपाधिसे उत्पन्न होनेवाले गुण तथा पर्यायोंसे रहित आत्मा आत्माके लिए उपादेय है -- ग्रहण करनेके योग्य है ।। ३८ ।। निर्विकल्प तत्त्वका स्वरूप
णो खलु सहावठाणा, णो माणवमाणभावठाणा वा ।
हरिसभावठाणा, णो जीवस्साहरिस्सठाणा वा । । ३९ ।।
निश्चयसे जीवके स्वभावस्थान (विभाव स्वभावके स्थान) नहीं हैं, मान अपमान भावके स्थान नहीं हैं, हर्षभावके स्थान नहीं हैं तथा अहर्षभावके स्थान नहीं हैं । । ३९ ।।
ण ठिदिबंधट्टाणा, जीवस्स ण उदयठाणा वा ।
जो अणुभागट्टाणा, जीवस्स ण उदयठाणा वा ।। ४० ।।
जीवके स्थितिबंधस्थान नहीं है, प्रकृतिस्थान नहीं है, प्रदेशस्थान नहीं है, अनुभागस्थान नहीं है और उदयस्थान नहीं है।
भावार्थ -- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा बंधके चार भेद हैं सो जीवके चारोंही प्रकारके बंधस्थान नहीं हैं। जब बंधस्थान नहीं हैं तब उनके उदयस्थान कैसे हो सकते हैं? वास्तवमें बंध और उदयकी अवस्था व्यवहारनयसे है, यहाँ निश्चयनयकी प्रधानतासे उसका निषेध किया गया है ।। ४० ।। णो खइयभावठाणा, णो खयउवसमसहावठाणा वा ।
ओदइयभावठाणा, णो उवसमणे सहावठाणा वा । । ४१ । ।
जीवके क्षायिक भावके स्थान नहीं हैं, क्षायोपशमिक स्वभावके स्थान नहीं हैं, औदयिक भावके स्थान नहीं है और औपशमिक स्वभावके स्थान नहीं हैं।
भावार्थ -- कर्मोंकी क्षय, क्षयोपशम, उपशम और उदयरूप अवस्थाओंमें होनेवाले भाव क्रमसे क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और औदयिक भाव कहलाते हैं। ये परनिमित्तसे होनेके कारण जीवके