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कुन्दकुन्द-भारती आगे आत्मज्ञानी जीवकी महत्ता प्रकट करते हैं --
जं अण्णाणी कम्मं, खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं।
तंणाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमेत्तेण।।३८ ।। अज्ञानी जीव, जिस कर्मको लाखों-करोडों पर्यायों द्वारा क्षपित करता है, तीन गुप्तियोंसे गुप्त आत्मज्ञानी जीव उस कर्मको उच्छ्वासमात्रमें क्षपित कर देता है।
ज्ञानकी और खासकर आत्मज्ञानकी बड़ी महिमा है।।३८ ।।
आगे आत्मज्ञानशून्य पुरुषके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयमभावकी एकता भी कार्यकारी नहीं है यह कहते हैं --
परमाणुपमाणं वा, मुच्छा देहादियेसु जस्स पुणो।
विज्जदि जदि सो सिद्धिं, ण लहदि सव्वागमधरोवि।।३९।। जिसके शरीरादि परपदार्थों में परमाणुप्रमाण भी ममताभाव विद्यमान है वह समस्त आगमका धारक होकर भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है।
जो शुद्धात्मद्रव्यसे अतिरिक्त शरीरादि परपदार्थोंमें थोड़ी भी मूर्छा रखता है उन्हें अपना मानता है वह समस्त आगमका जाननेवाला होकर भी आत्मज्ञानसे शून्य है और जो आत्मज्ञानसे शून्य है वह मुक्तिको प्राप्त नहीं कर सकता है यह निश्चय है।।३९।। १ आगे कैसा मुनि संयत कहलाता है यह बतलाते हैं --
पंचसमिदो तिगुत्तो, पंचेंदियसंवुडो' जिदकसाओ।
दंसणणाणसमग्गो, समणो सो संजदो भणिदो।।४०।। जो ईर्यादि पाँच समितियोंसे सहित है, कायगुप्ति वचनगुप्ति मनोगुप्ति इन तीन गुप्तियोंसे युक्त है, स्पर्शनादि पाँच इंद्रियोंको रोकनेवाला है, क्रोधादि कषायोंको जीतनेवाला है और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानसे पूर्ण है -- संपन्न है ऐसा साधु ही संयत कहा गया है।।४० ।। आगे श्रमण अर्थात् साधुका लक्षण कहते हैं --
समसत्तुबंधुवग्गो, समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण, जीविदमरणे समो समणो।।४१।।
१.३९ वीं गाथाके आगे ज. वृ. में निम्नांकित गाथा अधिक उपलब्ध है --
चागो य अणारंभो, विसयविरागो खओ कसायाणं।
सो संजमोत्ति भणिदो, पव्वज्जाए विसेसेण।।१।। २. ...संउडो ज. वृ. । ३. जिय .... ज. वृ. ।