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________________ प्रवचनसार २०७ जिसे शत्रु और मित्रोंका समूह एक समान हों, सुख और दुःख एक समान हों, प्रशंसा और निंदा एकसमान हों, पत्थरके ढेले और सुवर्ण एक समान हों तथा जो जीवन और मरणमें समभाववाला हो वह श्रमण अर्थात् साधु है।।४१।।। ____ आगे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें एक साथ प्रवृत्ति करनेवाला मुनि ही एकाग्रताको प्राप्त होता है यह कहते हैं -- दसणणाणचरित्तेसु, तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु। एयग्गगदोत्ति मदो, सामण्णं तस्स 'परिपुण्णं ।।४२।। जो साधु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंमें एकसाथ उद्यत रहता है वह एकाग्रगत है तथा उसीका मुनिपद पूर्णताको प्राप्त होता है ऐसा माना गया है।।४२।। आगे एकाग्रताका अभाव मोक्षमार्ग नहीं है यह प्रकट करते हैं -- मुज्झदि वा रज्जदि वा, दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज। जदि समणो अण्णाणी, बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ।।४३।। यदि साधु अन्य द्रव्यको पाकर मोह करता है अथवा राग करता है अथवा द्वेष करता है तो वह अज्ञानी है तथा विविध कर्मोंसे बद्ध होता है। शुद्धात्मद्रव्यको छोड़कर परपदार्थमें आत्मबुद्धि करना तथा इष्ट-अनिष्ट वस्तुओंमें रागद्वेष करना मोहोदयके कार्य हैं। जब तक जीवके मोहका उदय रहता है तब तक वह अज्ञानी रहता है और अनेक प्रकारका कर्मबंध उसके जारी रहता है।।४३।। आगे एकाग्रता ही मोक्षका मार्ग है यह बतलाते हैं -- अत्थेसु जो ण मुज्झदि, ण हि रज्जदि णेव दोसमुपयादि। समणो जदि सो णियदं, खवेदि कम्माणि विविधाणि ।।४४।। जो मुनि बाह्य पदार्थों में न मोह करता है, न राग करता है और न द्वेष करता है वह निश्चित ही अनेक कर्मोंका क्षय करता है।।४४।। समणा सुद्धवजुत्ता, सुहोवजुत्ता य होंति समयम्मि। तेसुवि सुद्धवउत्ता, अणासवा सासवा सेसा।।४५।। मुनि परमागममें शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी के भेदसे दो प्रकारके कहे गये हैं। उनमेंसे शुद्धोपयोगी आस्रवसे रहित और शेष -- शुभोपयोगी आस्रवसे सहित हैं।।४५ ।। १. पडिपुण्णं ज. वृ. । २. अढेसु ज. वृ. ३. --मुवयादि ज. वृ. ४. विविहाणि ज. वृ.
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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