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उपदेश देते हैं
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कुन्दकुन्द - भारती
इह लोगणिरावेक्खो, 'अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्मि ।
जुत्ताहारविहारो, रहिदकसाओ हवे समणो ।। २६ ।।
इस लोकसे निरपेक्ष और परलोककी आकांक्षासे रहित साधु कषायरहित होता हुआ योग्य आहारविहार करनेवाला हो ।
मुनि इस लोकसंबंधी मनुष्य पर्यायसे निरपेक्ष रहता है और परलोकमें प्राप्त होनेवाले देवादि पर्यायसंबंधी आकांक्षा नहीं करता है इसलिए इष्टानिष्ट सामग्रीके संयोगसे होनेवाले कषायभावपर विजय प्राप्त करता हुआ योग्य आहार ग्रहण करता है तथा ईर्यासमितिपूर्वक आवश्यक विहार भी करता है । । २६ ।। आगे योग्य आहारविहार करनेवाला साधु आहारविहारसे रहित होता है ऐसा उपदेश देते हैं। जस्स अणेसणमप्पा, तंपि तओ तप्पडिच्छगा समणा ।
अण्णं भिक्खमणेसणमध' ते समणा अणाहारा ।। २७ ।।
निकी आत्मा परद्रव्यका ग्रहण न करनेसे निराहार स्वभाववाली है, वही उनका अंतरंग तप है। मुनि निरंतर उसी अंतरंग तपकी इच्छा करते है और एषणाके दोषोंरहित जो भिक्षावृत्ति करते हैं उसे सदा अन्य अर्थात् भिन्न समझते हैं, इसलिए वे आहार ग्रहण करते हुए भी निराहार हैं ऐसा समझना चाहिए। इसी प्रकार विकाररहित स्वभाव होनेके कारण विहार करते हुए भी विहाररहित होते हैं ऐसा जानना चाहिए ।। २७ ।।
आगे मुनिके मुक्ताहारपन कैसे होता है यह कहते हैं --
केवलदेहो समणो, देहे " ण ममेत्तिरहिदपरम्मो ।
आउत्तो तं तवसा, 'अणिगृहं अप्पणो सत्तिं ।। २८ ।।
श्रमण केवल शरीरररूप परिग्रहसे युक्त होता है, शरीरमें भी 'यह मेरा नहीं है' ऐसा विचार कर सजावटसे रहित होता है, और अपनी शक्तिको न छुपाकर उसे तपसे युक्त करता है अर्थात् तपमें लगाता
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शरीरको सदा स्वशुद्धात्म द्रव्यसे बहिर्भूत मानते हैं इसलिए कभी उसका संस्कार नहीं करते
२. २६ वीं गाथाके बाद ज. वृ में निम्नलिखित गाथा अधिक व्याख्यात है -- कोहादिएहि चविहि विकहाहि तहिंदियाणमत्थेहिं ।
१. अप्पडिबद्धो । ज. वृ. ।
समणो हवदि पमत्तो उवजुत्तो नेह णिद्दाहिं । । १ । ।
३. तवो ज. वृ. । ४. एषणादोषशून्यम् ज. वृ., अन्नस्याहारस्यैषणं वाञ्छान्नेषणम् । ज. वृ. । ५. देहेवि ममत्त ज. वृ. । ६. अणिगूहिय ज. वृ. ।