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समयसार
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हैं और अपनी शक्तिअनुसार उसे तपमें लगाते हैं। इसलिए उनके युक्ताहारपना अनायास सिद्ध है।।२८ ।। आगे युक्ताहारका स्वरूप विस्तारसे समझाते हैं -..
एक्कं खलु तं भत्तं, अप्पडिपुण्णोदरं जधा लद्धं।
चरणं भिक्खेण दिवा, ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ।।२९।। मुनिका वह भोजन निश्चयसे एक ही बार होता है, अपूर्ण उदर (खाली पेट) होता है, सरस-नीरस जैसा मिल जाता है वैसा ही ग्रहण किया जाता है, भिक्षावृत्तिसे प्राप्त होता है, दिनमें ही लिया जाता है, रसकी अपेक्षासे रहित होता है और मधुमांसरूप नहीं होता है।।२९।।'
___ आगे उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्गकी मित्रतासे ही चारित्रकी स्थिरता रह सकती है ऐसा कहते हैं --
बालो वा वुड्डो वा, समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा।
चरियं चरउ सजोग्गं, मूलच्छेदं जधा ण हवदि।।३०।। जो मुनि बालक है अथवा वृद्ध है अथवा तपस्या के मार्गके श्रमसे खिन्न है, अथवा रोगादिसे पीड़ित है वह अपने योग्य उस प्रकार चर्याका आचरण कर सकता है जिस प्रकारकी मूल संयमका घात न
हो।
'संयमका साधन शुद्धात्मतत्त्व ही है, शरीर नहीं है' ऐसा विचार कर शरीररक्षाकी ओर दृष्टि न डाल, बालक, वृद्ध, श्रांत अथवा ग्लान मुनिको भी स्वस्थ तरुण तपस्वीके समान ही कठोर आचरण करना चाहिए यह उत्सर्गमार्ग है और 'शरीर भी संयमका साधन है, क्योंकि मनुष्यशरीरके नष्ट होनेपर देवादिके शरीरसे संयम धारण नहीं किया जा सकता है ऐसा विचार कर शरीररक्षाकी ओर दृष्टि डाल बालक, वृद्ध, श्रांत अथवा ग्लान मुनि मूलसंयमका घात न करते हुए कोमल आचरण कर सकते हैं, यह अपवाद मार्ग है। आचार्य कुंदकुंद स्वामी यहाँ प्रकट कर रहे हैं कि उक्त दोनों मार्ग परस्परमें सापेक्ष हैं। आचरणमें शिथिलता न आ जावे इसलिए मूल संयमकी विराधना न करते हुए अपवाद मार्ग भी धारण करना चाहिए। क्योंकि
१. जहालद्धं ज. वृ.। २. मदुमंसं ज. वृ.। ३. २९ वीं गाथाके आगे ज. वृ. में निम्नांकित ३ गाथाएँ अधिक व्याख्यात हैं --
पक्केसु य आमेसु य विपच्चमाणासु मंसपेसीसु। संतत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ।।१।। जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि पासदि वा। सो किल णिहणदि पिंडं जीवाणमणेगकोडीणं ।।२।। अप्पडिकुटुं पिंडं पाणिगयं गेव देयमाणस्स। दत्ताभोत्तुमजोग्गं भुत्तो वा होदि पुडिकुट्टो।।३।। ज. वृ. (अप्पडिकुट्टाहारं -- ) इत्यपि पाठः।