SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार १८७ करती है और न कर्म आत्माको ग्रहण करते हैं। यदि ग्रहण करने लगे तो दोनोंका एक अस्तित्व हो जावे, परंतु ऐसा त्रिकालमें भी नहीं हो सकता, क्योंकि सत्का कभी नाश नहीं होता और असत्की उत्पत्ति नहीं होती।।९४ ।। आगे पुद्गल कर्मोंमें ज्ञानावरणादि रूप विचित्रता किसकी की हुई है यह निरूपण करते हैं परिणमदि जदा अप्पा, सुहम्मि रागदोसजुदो। तं पविसदि कम्मरयं, णाणावरणादि भावेहिं ।।९५ ।। जिस समय यह आत्मा रागद्वेषसे सहित होता हुआ शुभ अथवा अशुभ भावोंमें परिणमन करता है उसी समय कर्मरूपी धूली ज्ञानावरणादि आठ कर्म होकर आत्मामें प्रवेश करती है। जिस प्रकार वर्षा ऋतुमें जब नूतन मेघका जल भूमिके साथ संयोग करता है तब वहाँके अन्य पुद्गल अपने आप विविध रूप होकर हरी घास, शिलींध्र तथा इंद्रगोप कीटक आदिरूप परिणमन करने लगते हैं, इसी प्रकार जब रागी द्वेषी आत्मा शुभ-अशुभ भावोंमें परिणमन करता है तब उसका निमित्त पाकर कर्मरूपी धूलीमें ज्ञानावरणादिरूप विचित्रता स्वयं उत्पन्न हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि पुद्गलात्मक कर्मों में जो विचित्रता देखी जाती है उसका कर्ता पुद्गल ही है, जीव नहीं ।।१५।। आगे अभेदनयसे बंधके कारणभूत रागादिरूप परिणमन करनेवाला आत्मा ही बंध कहलाता है यह कहते हैं -- सपदेसो सो अप्पा, कसायदो मोहरागदोसेहिं। कम्मरजेहिं सिलिट्रो, बंधोत्ति परूविदो समये।।९६।। जो लोकाकाशके बराबर असंख्यात प्रदेशोंसे सहित है तथा मोह राग एवं द्वेषसे कषायित -- कषैला होता हुआ कर्मरूपी धूलीसे श्लिष्ट हो रहा है -- संबद्ध हो रहा है वह आत्मा ही बंध है ऐसा आगममें कहा गया है। जिसप्रकार अनेक प्रदेशोंवाला वस्त्र, लोध्र, फिटकरी आदि पदार्थोंके द्वारा कषैला होकर जब लाल पीले आदि रंगोंमें रंगा जाता है तब वह लाल, पीला आदि हो जाता है। उस समय 'यह वस्त्र लाल या पीले रंगसे रँगा हुआ है' ऐसा न कहकर 'लाल वस्त्र', 'पीला वस्त्र' यही व्यवहार होने लगता है। उसी प्रकार जब यह आत्मा भावकर्मसे कषायित होकर कर्मरजसे आश्लिष्ट होता है -- भावबंधपूर्वक द्रव्यबंधको ९५ वी गाथाके बाद ज. वृ. में निम्न गाथा अधिक व्याख्यात है -- 'सुपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसम्मि। विपरीदो दु जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ।।'
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy