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________________ १८६ कुन्दकुन्द-भारती प्राप्त करना चाहिए।।९१।। आगे आत्माका कर्म क्या है? इसका निरूपण करते हैं -- कुव्वं सभावमादा, हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स। पोग्गलदव्वमयाणं, ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।१२।। अपने स्वभावको करता हुआ आत्मा निश्चयसे स्वभावका ही -- स्वकीय चैतन्य परिणामका ही कर्ता है, पुद्गल द्रव्यरूप कर्म तथा शरीरादि समस्त भावोंका कर्ता नहीं है। निश्चयसे कर्तृ-कर्मका व्यवहार वहीं बनता है जहाँ व्याप्य व्यापक होता है। जीव व्यापक है और उसके चैतन्य परिणाम व्याप्य हैं, अत: जीव स्वकीय चैतन्य परिणामका ही कर्ता हो सकता है। ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म और औदारिक शरीरादि नोकर्म पुद्गल द्रव्य हैं। इनका जीवके साथ व्याप्य-व्यापक भाव किसी तरह सिद्ध नहीं है अतः वह इनका कर्ता त्रिकालमें भी नहीं हो सकता।।९२।। आगे पुद्गल परिणाम आत्माका कर्म क्यों नहीं? यह शंका दूर करते हैं -- __ गेण्हदि णेव ण मुंचदि, करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि। जीवो पोग्गलमज्झे, वट्टण्णवि सव्वकालेसु।।१३।। जीव सदाकाल पुद्गलके बीचमें रहता हुआ भी पौद्गलिक कर्मोंको न ग्रहण करता है, न छोड़ता है और न करता ही है। जिस प्रकार अग्नि लोहपिंडके बीचमें रहकर भी उसे न ग्रहण करती है, न छोड़ती है और न करती है उसी प्रकार यह जीव भी पुद्गलके बीच रहकर भी न उसे ग्रहण करता है न छोड़ता है और न करता ही है। संसारके सर्व पदार्थ स्वतंत्र हैं और अपने उपादानसे होनेवाले उनके परिणमन भी स्वतंत्र हैं, फिर जीव पुद्गल द्रव्यका कर्ता कैसे हो सकता है? ।।९३।। ___ आगे यदि ऐसा है तो आत्मा पुद्गल कर्मोंके द्वारा क्यों ग्रहण किया जाता और क्यों छोड़ा जाता? यह बतलाते हैं -- स इदाणिं कत्ता सं, सगपरिणामस्स दव्वजादस्स। आदीयदे कदाई, विमुच्चदे कम्मधूलीहिं ।।१४।। वह आत्मा इस समय -- संसारी दशामें आत्मद्रव्यसे उत्पन्न हुए अपने ही अशुद्ध परिणामोंका कर्ता होता हुआ कर्मरूप धूलिके द्वारा ग्रहण किया जाता है और किसी कालमें छोड़ दिया जाता है। जब आत्मा अपने आपमें उत्पन्न हुए रागादि अशुद्ध भावोंको करता है तब कर्मरूप धूली उसे आवृत कर देती है और जब आबाधा पूर्ण हो जाती है तब वही कर्मरूपी धूली उस आत्मासे जुदी हो जाती है -- उसे छोड़ देती है। इन दोनोंका ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। यथार्थमें आत्मा न कर्मोंको ग्रहण
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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