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कुन्दकुन्द-भारती
फासेहिं पोग्गलाण', बंधो जीवस्स रागमादीहिं।
अण्णोण्णं अवगाहो, 'पोग्गलजीवप्पगो अप्पा।।८५।। यथायोग्य स्निग्ध ओर रूक्ष स्पर्श गुणोंके द्वारा पूर्व और नवीन कर्मरूप पुद्गल परमाणुओंका जो बंध है वह पुद्गलबंध है, रागादि भावोंसे जीवमें जो विकार उत्पन्न होता है वह जीवबंध है और पुद्गल तथा जीवका जो परस्परमें अवगाह -- प्रदेशानुप्रवेश होता है वह पुद्गलजीवबंध -- उभयबंध कहा गया है।।८५ ।। आगे द्रव्यबंध भावबंधहेतुक है यह सिद्ध करते हैं --
सपदेसो सो अप्पा, तेसु पदेसेसु पोग्गला काया।
पविसंति जहाजोग्गं, तिटुंति य जंति बज्झंति।।८६।। वह आत्मा लोकाकाशके तुल्य असंख्यातप्रदेशी होनेसे सप्रदेश है, उन असंख्यात प्रदेशोंमें कर्मवर्गणाके योग्य पुद्गलपिंड काय वचन और मनोयोगके अनुसार प्रवेश करते हैं, बंधको प्राप्त होते हैं, स्थितिको प्राप्त होते हैं और फिर चले जाते हैं -- निर्जीर्ण हो जाते हैं।
आगममें द्रव्यकर्मबंधकी चार अवस्थाएँ बतलायी हैं -- १. प्रदेशबंध, २. प्रकृतिबंध, ३. स्थितिबंध और ४. अनुभागबंध । तीव्र, मंद अथवा मध्यम योगोंका आलंबन पाकर आत्माके असंख्यात प्रदेशोंमें जो कर्मपिंडका प्रवेश होता है उसे प्रदेशबंध कहते हैं, प्रविष्ट कर्मपिंड आत्मप्रदेशोंके साथ संबंधको प्राप्त होते हैं उसे प्रकृतिबंध कहते हैं, कषायभावके अनुसार कर्मपिंड उन आत्मप्रदेशोंमें यथायोग्य समयतक स्थित रहते हैं उसे स्थितिबंध कहते हैं और आबाधाकाल पूर्ण होनेपर कर्मपिंड अपना फल देते हुए खिरने लगते है उसे अनुभागबंध कहते हैं। यह चारों प्रकारका द्रव्यबंध भावबंधपूर्वक होता है।।८६।।
आगे द्रव्यबंधका हेतु होनेसे रागादि परिणामरूप भावबंध ही निश्चयसे बंध है यह सिद्ध करते हैं --
रत्तो बंधदि कम्मं, मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा।
एसो बंधसमासो, जीवाणं जाण णिच्छयदो।।८७।। रागी जीव कर्मोंको बाँधता है और रागरहित आत्मा कर्मोंसे मुक्त होता है। संसारी जीवोंका यह बंधतत्त्वका संक्षेप कथन निश्चय से जानो।
निश्चयसे बंध और मोक्षका संक्षिप्त कारण रागका सद्भाव तथा रागका अभाव ही है, इसलिए रागभावको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिए।।८७।।
आगे परिणाम ही द्रव्यबंधके साधक हैं यह बतलाते हुए परिणामोंकी विशेषताका वर्णन करते हैं -- १. पुग्गलाणं ज. वृ. । २. पुग्गल ज. वृ.। ३. पुग्गला ज. वृ. । ४. चिटुंति ज. वृ. ।