SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार १८३ भाव पैदा होते हैं। इन्हींके कारण कर्मोंका बंध करनेवाला कहलाता है। 'गाय बाँध दी गयी है' यहाँ तत्त्वदृष्टिसे विचार करते हैं तब बंधन रस्सीका रस्सीके साथ है, न कि रस्सीका गायके साथ। फिर भी 'गाय बाँध दी गयी ' ऐसा व्यवहार होता है। उसका भी कारण यह है कि जब तक रस्सीका रस्सीके साथ संबंध रहेगा तब तक गाय उस स्थानसे अन्यत्र नहीं जा सकेगी। इसी प्रकार नवीन कर्मोंका संबंध आत्माका एक क्षेत्रावगाहमें स्थित पुरातन कर्मोंके साथ होता है, न कि आत्माके साथ, फिर भी आत्मा बद्ध कहलाता है। उसका भी कारण यह है कि जब तक पुरातन कर्मोंके साथ नवीन कर्मोंका संबंध जारी रहता है तब तक आत्मा स्वतंत्र नहीं रह सकता। इन दोनोंमें ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध है।।८२।। आगे भाव बंधका स्वरूप कहते हैं -- उवओगमओ जीवो, मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि। पप्पा विविधे विसए, जो हि पुणो तेहिं संबंधो।।८३।। जो उपयोग स्वभाववाला जीव विविध प्रकारके -- इष्ट अनिष्ट विषयोंको पाकर मोहित होता है -- उन्हें अपना मानने लगता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है वह उन्हीं भावोंसे बंधको प्राप्त होता है। मोह -- परपदार्थको अपना मानना, राग -- इष्ट वस्तुओंके मिलनेपर प्रसन्न होना और द्वेष -- प्रतिकूल सामग्री मिलनेपर विषादयुक्त होना ये तीनों भाव ही भावबंध हैं।।८३।। अब भावबंधके अनुसार द्रव्यबंधका स्वरूप बतलाते हैं -- भावेण जेण जीवो, पेच्छदि जाणादि आगदं विसए। रज्जदि तेणेव पुणो, बज्झदि कम्मत्ति उवएसो।।८४ ।। जीव इंद्रियोंके विषयमें आये हुए इष्ट अनिष्ट पदार्थोंको जिस भावसे जानता है, देखता है और राग करता है उसी भावसे पौद्गलिक द्रव्यकर्मका बंध होता है ऐसा उपदेश है। ___ मोहकर्मके दो भेद हैं -- १. दर्शन मोहनीय और २. चारित्र मोहनीय। दर्शनमोहके उदयसे यह जीव आत्मस्वरूपको भूलकर परपदार्थमें आत्मबुद्धि करने लगता है इसे मोह अथवा मिथ्या दर्शन कहते हैं। चारित्र मोहनीयके उदयसे यह जीव इष्ट पदार्थोंको पाकर प्रसन्नताका अनुभव करने लगता है और अनिष्ट पदार्थोंको पाकर दु:खी होता है। जीवकी इस परिणतिको राग, द्वेष अथवा कषाय कहते हैं। द्विविध मोहके उदयसे आत्मामें जो विकार होता है वह भावबंध कहलाता है। इस भावबंधके होनेपर आत्माके साथ एक क्षेत्रावगाह रूपसे स्थित कार्मण वर्गणामें कर्मरूप परिणमन हो जाता है, इसे द्रव्यबंध कहते हैं। इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यबंध भावबंधपूर्वक होता है।।८४ ।। आगे पुद्गलबंध, जीवबंध और उभयबंधका स्वरूप बतलाते हैं --
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy