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प्रवचनसार
परिणमनको प्राप्त हो जाते हैं। वे जीवके द्वारा नहीं परिणमाये जाते हैं।
कर्म पुद्गलमय है इसलिए उनका उपादान पुद्गलस्कंध ही है जीव केवल निमित्त है ।।७७।। आगे शरीराकार परिणत पुद्गलपिंडोंका कर्ता जीव नहीं है यह कहते हैं --
ते ते कम्मत्तगदा, पोग्गलकाया पुणो हि जीवस्स। मला संजायंते देहा, देहंतरसंकमं पप्पा।।७८।।
वे वे द्रव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल स्कंध अन्य पर्यायका संबंध पाकर फिर भी जीवके शरीररूप उत्पन्न हो जाते हैं।
जीवके परिणामोंका निमित्त पाकर जो पुद्गलकाय कर्मरूप परिणत होते हैं वे अन्य जन्ममें शरीराकार हो जाते हैं। यह सब क्रिया पुद्गल स्कंधोंमें अपने आपही होती है अतः जीव शरीराकार परिणत पुद्गलपिंडोंका भी कर्ता नहीं है।।७८ ।। अब आत्माके शरीरका अभाव बतलाते हैं --
ओरालिओ य देहो, देहो वेउविओ य तेजयिओ।
आहारय कम्मइओ, पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे।।७९।। औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, आहारक शरीर और कार्मण शरीर ये सब शरीर पुद्गल द्रव्यात्मक हैं।
यतः शरीर पुद्गल द्रव्यात्मक है अतः आत्माके नहीं हैं।।७९ ।।
आगे यदि ऐसा है तो शरीरादि समस्त परद्रव्योंसे जुदा करनेवाला जीवका असाधारण -- उसी एकमें पाया जानेवाला लक्षण क्या है? ऐसा प्रश्न होनेपर उत्तर देते हैं --
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं।
जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिद्वसंठाणं ।।८।। जो रसरहित हो, रूपरहित हो, गंधरहित हो, अव्यक्त हो -- स्पर्शरहित हो, शब्दरहित हो, इंद्रियोंके द्वारा जिसका ग्रहण नहीं हो सकता हो, सब प्रकारके आकारोंसे रहित हो और चेतनागुणसे सहित हो उसे जीव जानो।
पाँच प्रकारके रस, पाँच प्रकारके रूप, दो प्रकारके गंध, आठ प्रकारके स्पर्श, अनेक प्रकारके
१. 'जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन।।' -- पु. सि. २. पुग्गलकाया .ज. वृ. । ३. पुणो वि ज. वृ.। ४. पुग्गल ज. वृ. ।