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कुन्दकुन्द - भारती
आगे आत्मा द्विप्रदेशादि पुद्गल स्कंधोंका कर्ता नहीं याह कहते हैं।
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दुपदेसादी खंधा, सुहुमा वा बादरा ससंठाणा ।
पुढविजलतेउवाऊ, सगपरिणामेहिं जायंते ।। ७५ ।।
दो प्रदेशको आदि लेकर संख्यात, असंख्यात तथा अनंत पर्यंत प्रदेशोंको धारण करनेवाले, सूक्ष्म अथवा बादर, विभिन्न आकारोंसे सहित तथा पृथिवी, जल, अग्नि और वायुरूप स्कंध अपने-अपने स्निग्ध और रूक्ष गुणोंके परिणमनसे होते हैं।
तात्पर्य यह है कि पुद्गल स्कंधोंका कर्ता पुद्गल द्रव्य ही है, आत्मा नहीं है ।। ७५ ।। आगे आत्मा पुद्गल स्कंधोंको खींचकर लानेवाला भी नहीं है यह बतलाते हैं. ओगाढगाढणिचिदो, पोग्गलकाएहिं सव्वदो लोगो ।
सुहुमेहिं बादरेहिं य, अप्पाउग्गेहिं जोग्गेहिं ।। ७६ ।।
यह लोक सब जगह सूक्ष्म, स्थूल, अप्रायोग्य - कर्मवर्गणारूप होनेकी योग्यतासे रहित तथा योग्य -- कर्मवर्गणारूप होनेकी योग्यतासे सहित पुद्गल कायोंसे ठसाठस भरा हुआ है।
कर्मरूप होनेयोग्य पुद्गलवर्गणाएँ लोकके प्रत्येक प्रदेशमें विद्यमान हैं, अतः जब जीव रागद्वेषादि भावोंसे युक्त होता है तब अपने ही क्षेत्रमें विद्यमान कर्मरूप होनेयोग्य पुद्गल वर्गणाओंके साथ संबंधो प्राप्त हो जाता है। इससे यह सिद्ध होता हुआ कि जीव जहाँ रहता है वहीं उसके बंधयोग्य पुद्गल भी रहते हैं, वह अन्य बाह्य स्थानसे उन्हें खींचकर नहीं लाता है ।। ७६ ।।
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आगे आत्मा पुद्गलपिंडको कर्मरूप नहीं परिणमाता है यह कहते हैं। कम्मत्तणपाओग्गा, खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा |
गच्छंति कम्मभावं, ण दु ते जीवेण परिणमिदा ।। ७७ ।।
कर्मरूप होने के योग्य पुद्गलस्कंध, जीवकी राग-द्वेषादिरूप परिणतिको प्राप्त कर स्वयं ही कर्मरूप
उक्तं च-
'णिद्धा णिद्धेण बज्झति लुक्खा लुक्खा य पोग्गला । द्धि लक्खा य बज्झति रूवारुवीय पोग्गला ।।'
पिछले पृष्ठ से आगे १.
'णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण ।
णिद्धस्स लक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा ।।'
२.
'स्निग्धरूक्षत्वाभ्यां बन्धः । 'न जघन्यगुणानाम् । 'गुणसाम्ये सदृशानाम्। 'द्व्यदिकादिगुणानां तु ।' अध्याय ५, तत्त्वार्थसूत्र। ज. वृ. ३. पुग्गलकायेहिं ज. वृ. । ४. अप्पा ओग्गेहिं ज. वृ. । ५. ततो ज्ञायते यत्रैव शरीरावगाढक्षेत्रे जीवस्तिष्ठति बन्धयोग्यपुद्गला अपि तत्रैव तिष्ठन्ति न च बहिर्भागाज्जीव आनयति । ज. वृ. ।