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छब्बीस
कुंदकुंद-भारती
वह स्वार्थ श्रुत है और जिससे दूसरेका अज्ञान दूर हो वह परार्थ श्रुत है। नयोंका प्रयोग पात्रभेदकी अपेक्षा रखता है। एक ही नयसे सब पात्रोंका कल्याण नहीं हो सकता। कुंदकुंद स्वामीने स्वयं भी समयसारकी १२ वीं गाथामें इसका विभाग किया है कि शुद्ध नय किसके लिए और अशुद्ध नय किसके लिए आवश्यक है। शुद्ध नयसे तात्पर्य निश्चय नयका और अशुद्ध नसे तात्पर्य व्यवहार नयका लिया गया है।
गाथा इस प्रकार है
सुद्धो सुद्धा सो णायव्वो परमभावदरसीहिं ।
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे । ।१२ । ।
अर्थात्, जो परमभावको देखनेवाले हैं उनके द्वारा तो शुद्धनयका कथन करनेवाला शुद्धनय जाननेके योग्य है और जो अपरमभावमें स्थित हैं वे व्यवहारनयके द्वारा उपदेश देनेके योग्य है।
नयके विसंवादसे मुक्त होनेके लिए कहा गया है।
जई जिणमअं पवज्जह तो मा ववहारणिच्छए मुयह।
एकेण विणा छिज्जइतित्थं अण्णेण पुण तच्चं ॥
अर्थात्, यदि जिनेंद्र भगवानके मतकी प्रवृत्ति चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयोंको मत छोड़ो। क्योंकि यदि व्यवहारको छोड़ोगे तो तीर्थकी प्रवृत्तिका लोप हो जावेगा अर्थात् धर्मका उपदेश ही नहीं हो सकेगा, फलतः धर्म तीर्थका लोप हो जायेगा और यदि निश्चयको छोड़ोगे तो तत्त्वका ही लोप हो जायेगा, क्योंकि तत्त्वको कहनेवाला तो वही है।
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यही भाव अमृतचंद्र सूरिने कलश काव्यमें दरशाया है उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमोक्षन्त एव । । १४ ।।
अर्थात्, जो जीव स्वयं मोहका वमन कर निश्चय और व्यवहारनयके विरोधको ध्वस्त करनेवाले एवं स्यात्पदसे चिह्नित जिनवचनमें रमण करते हैं वे शीघ्र ही उस समयसारका अवलोकन करते हैं जो कि परम ज्योतिस्वरूप है, नवीन नहीं है अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे नित्य है और अनय पक्ष एकांत पक्षसे जिससा खंडन नहीं हो सकता।
इस संदर्भका सार यह है -
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चूँकि वस्तु, सामान्य विशेषात्मक अथवा द्रव्य पर्यायात्मक है अतः उसके दोनों अंशोंकी ओर दृष्टि रहनेपर ही वस्तुका पूर्ण विवेचन होता है। सामान्य अथवा द्रव्यको ग्रहण करनेवाला नय द्रव्यार्थिक नय कहलाता है और विशेष अथवा पर्यायको ग्रहण करनेवाला नय पर्यायार्थिक नय कहलाता है। आध्यात्मिक ग्रंथोंमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के स्थानपर निश्चय और व्यवहार नयका उल्लेख किया गया है। द्रव्यके त्रैकालिक स्वभावको ग्रहण करनेवाला निश्चयनय है और विभावको ग्रहण करनेवाला व्यवहारनय है। एक कालमें दोनों नयोंसे पदार्थको जाना तो जा सकता है, पर उसका कथन नहीं किया जा सकता। कथन क्रमसे ही किया जाता है। वक्ता अपनी विवक्षानुसार जिस समय जिस अंशको कहना चाहता है वह विवक्षित अथवा मुख्य अंश कहलाता है और वक्ता जिस अंशको नहीं कहना चाहता है वह अविवक्षित अथवा गौण कहलाता है। 'स्यात्' निपातका अर्थ कथंचित् -- किसी प्रकार होता है। वक्ता किस विवक्षासे जब पदार्थके