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________________ प्रस्तावना पच्चीस लिए उनका भेद भी स्वीकृत किया जाता है। इसीलिए द्रव्यमें गुण और पर्यायोंका भेदाभेद दृष्टिसे निरूपण मिलता है। इन ग्रंथोंमें व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्गकी चर्चा की गयी है तथा उसमें साधक साम्यभावका उल्लेख किया गया है। प्रवचनसारके अंतमें अमृतचंद्र स्वामीने द्रव्यनय, पर्यायनय, अस्तित्वनय, नास्तित्वनय, नामनय, स्थापनानय, नियतिनय, अनियतिनय, कालनय, अकालनय, पुरुषकारनय, दैवनय, निश्चयनय, व्यवहारनय, शुद्धनय तथा अशुद्धनय आदि ४७ नयोंके द्वारा आत्माका निरूपण किया है। इन नयोंको द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक अथवा निश्चय और व्यवहारनयका विषय न बनाकर स्वतंत्ररूपसे प्रतिपादित किया गया है। निश्चयनयकी भूतार्थता और व्यवहारनयकी अभूतार्थता आध्यात्मिक दृष्टिमें भूतार्थग्राही होनेसे निश्चयनयको भूतार्थ और अभूतार्थग्राही होनेसे व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा गया है। इसकी संगति अनेकान्तके आलोकमें ही संपन्न होती है, क्योंकि व्यवहारनयकी अभूतार्थता निश्चयनयकी अपेक्षा है । स्वरूप और स्वप्रयोजनकी अपेक्षा नहीं। उसे सर्वथा अभूतार्थ माननेमें बड़ी आपत्ति दिखती है। श्री अमृतचंद्र सूरिने समयसारकी ४६ वीं गाथाकी टीकामें लिखा है "व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषैव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् सस्थावराणां भस्मन इव निःशङ्कमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद् भवत्येव बन्धस्याभाव: । तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावाद् भवत्येव मोक्षस्याभाव: । " यही भाव तात्पर्यवृत्ति में जयसेनाचार्यने भी दिखलाया है -- "यद्यप्ययं व्यवहारनयो बहिर्द्रव्यालम्बनत्वेनाभूतार्थस्तथापि रागादिबहिर्द्रव्यालम्बनरहितविशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावालम्बनसहितस्य परमार्थस्य प्रतिपादकत्वाद् दर्शयितुमुचितो भवति । यदा पुनर्व्यवहारनयो न भवति तदा शुद्धनिश्चयनयेन त्रसस्थावरनया न भवन्तीति मत्वा निःशङ्कोपमर्दनं कुर्वन्ति जनाः । ततश्च पुण्यरूपधर्माभाव इत्येकं दूषणं, तथैव शुद्धनयेन रागद्वेषमोहरहितः पूर्वमेव मुक्तो जीवस्तिष्ठतीति मत्वा मोक्षार्थमनुष्ठानं कोऽपि न करोति, ततश्च मोक्षाभाव इति द्वितीयं च दूषणम्। तस्माद् व्यवहारनयव्याख्यानमुचितं भवतीत्यभिप्रायः । " इन अवतरणोंका भाव यह है यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तो भी जिस प्रकार म्लेच्छोंको समझानेके लिए म्लेच्छ भाषाका अंगीकार करना उचित है उसी प्रकार व्यवहारी जीवोंको परमार्थका प्रतिपादक होनेसे तीर्थकी प्रवृत्तिके निमित्त, अपरमार्थ होनेपर भी व्यवहार नयका दिखलाना न्यायसंगत है। अन्यथा व्यवहारके बिना परमार्थनयसे जीव शरीरसे सर्वथा भिन्न दिखाया गया है, इस दशामें जिस प्रकार भस्मका उपमर्दन करनेसे हिंसा नहीं होती उसी प्रकार त्रय स्थावर जीवोंका निःशंक उपमर्दन करनेसे हिंसा नहीं होगी और हिंसाके न होनेसे बंधका अभाव हो जायेगा, बंधके अभावसे संसारका अभाव हो जायेगा। इसके अतिरिक्त 'रागी द्वेषी और मोही जीव बंधको प्राप्त होता है। अतः उसे ऐसा उपदेश देना चाहिए कि जिससे वह राग द्वेष और मोहसे छूट जावे' यह जो आचार्यांने मोक्षका उपाय बतलाया है वह व्यर्थ हो जायेगा। क्योंकि परमार्थसे जीव, राग द्वेष मोहसे भिन्न ही दिखाया जाता है। जब भिन्न है तब मोक्षके उपाय की स्वीकृति करना असंगत होगा, इस तरह मोक्षका भी अभाव हो जायेगा। न श्रुतज्ञानके विकल्प हैं और श्रुत स्वार्थ तथा परार्थकी अपेक्षा दो प्रकारका है। जिससे अपना अज्ञान दूर हो
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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