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प्रस्तावना
सत्ताईस
एक अंशका वर्णन करता है तब वह दूसरे अंशको गौण कर देता है पर सर्वथा छोड़ता नहीं है, क्योंकि सर्वथा छोड़ देनेपर एकांतवाद का प्रसंग आता है और उससे वस्तुतत्त्वका पूर्ण विवेचन नहीं हो पाता। इसी अभिप्रायसे आचार्योंने कहा है कि दोनों नयोंके विरोधको नष्ट करनेवाले स्यात् पद चिह्नित जिनवचनमें रमण करते हैं वे ही समयसाररूप परम ज्योतिको प्राप्त करते हैं।
सम्यग्दृष्टि जीववस्तुतत्त्वका परिज्ञान प्राप्त करनेके लिए दोनों नयोंका आलंबन लेता है परंतु श्रद्धामें वह अशुद्ध नयके आलंबनको हेय समझता है। यही कारण है कि वस्तु स्वरूपका यथार्थ परिज्ञान होनेपर अशुद्ध नयका आलंबन स्वयं छूट जाता है। कुंदकुंद स्वामीने उभय नयोंके आलंबनसे वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन किया है इसलिए वह निर्विवाद रूपसे सर्वग्राह्य है।
आगे संकलित ग्रंथोंका परिचय दिया जाता है -- पंचास्तिकाय
इसमें श्री अमृतचंद्राचार्यकृत टीकाके अनुसार १७३ और जयसेनाचार्य कृत टीकाके अनुसार १८१ गाथाएँ हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं क्योंकि ये अणु अर्थात् प्रदेशकी अपेक्षा महान हैं -- बहप्रदेशी हैं। लोकके अंदर समस्त द्रव्य परस्परमें प्रविष्ट होकर स्थित हैं फिर भी अपने अपने स्वभावको नहीं छोड़ते। सत्ताका स्वरूप बतलाकर द्रव्यका लक्षण करते हुए कहा है कि जो विभिन्न पर्यायोंको प्राप्त हो उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य सत्तासे अभिन्न है एतावता सत् ही द्रव्यका लक्षण है। अथवा जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्यसे सहित हो वह द्रव्य है। अथवा जो गुण और पर्यायोंका आश्रय हो वह द्रव्य है।
चूँकि अनेकान्त जिनागमका जीव -- प्राण है इसलिए उसमें विवक्षावश द्रव्यमें अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति, अवक्तव्य, अस्तिअवक्तव्य, नास्तिअवक्तव्य और अस्तिनास्तिअवक्तव्य इन सात भंगोंका निरूपण किया है। इन प्रत्येक भंगोंके साथ विशिष्ट विवक्षाको दिखानेवाला, कथंचित् अर्थका द्योतक 'स्यात्' शब्द लगाया जाता है, जैसे स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति आदि। ये सात भंग विवक्षासे ही सिद्ध होते हैं। इसके लिए गाथा है --
सिय अत्थि णत्थि उहयं अवत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं ।
दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि।। अर्थात् द्रव्य स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिरूप है, परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिरूप है, क्रमशः स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा उभय -- अस्तिनास्तिरूप है। एक साथ स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अवक्तव्यरूप है। अस्ति और अवक्तव्यके संयोगकी अपेक्षा अस्ति अवक्तव्य है, नास्ति और अवक्तव्यके संयोगकी अपेक्षा नास्तिअवक्तव्य है और अस्तिनास्ति तथा अवक्तव्यके संयोगकी अपेक्षा अस्तिनास्ति अवक्तव्य है।
'असत्का जन्म और सत्का विनाश नहीं होता' इस सनातन सिद्धांत को स्वीकृत करते हुए कहा गया है कि भाव -- सत्रूप पदार्थका न नाश होता है और न उत्पाद । किंतु पर्यायोंमें ही ये होते हैं। अर्थात् पदार्थ द्रव्य दृष्टिसे नित्य है और पर्यायदृष्टिसे अनित्य है। यह एकान्त भी कुंदकुंद स्वामीको स्वीकार्य नहीं है कि सत्का विनाश नहीं होता और असत्की उत्पत्ति नहीं होती। वे कहते हैंकि मनुष्य मरकर देव हो गया, यहाँ सत्रूप मनुष्यका विनाश हो गया और असत्रूप देवपर्यायका उत्पाद हुआ। मनुष्य पर्यायमें मनुष्य सत्रूप ही है और देव पर्याय असत्रूप है, क्योंकि एक १. जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आगासं। अत्थित्तम्मि य णियदा अणण्णमइया अणु महंता।।४।। 'अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्तामूर्ताश्च निर्विभागांशास्तैः महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशात्मका इति सिद्धं तेषां कायत्वम्।' सं. टीका