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________________ समयसार जिस कारण आत्मभाव और पुद्गलभाव दोनोंको आत्मा करता है ऐसा कहते हैं इसलिए द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि हैं। __ भावार्थ -- जो ऐसा मानते हैं कि आत्मा आत्मपरिणाम और पुद्गलपरिणाम दोनोंका ही कर्ता है वे एकके दो क्रियाओंके कहनेबाले हैं। ऐसा नियम है कि उपादानरूपसे एक द्रव्य एक द्रव्यका ही कर्ता हो सकता है, अनेक द्रव्योंका नहीं। जो एक द्रव्यको अनेक द्रव्योंका कर्ता मानते हैं वे वस्तुमर्यादाके लोपी होनेसे मिथ्यादृष्टि हैं।।८६।। आगे मिथ्यात्व आदिके जीव-अजीवके भेदसे दो भेद हैं ऐसा वर्णन करते हैं -- मिच्छत्तं पुण दुविहं, जीवमजीवं तहेव अण्णाणं। अविरदि जोगो मोहो, कोधादीया इमे भावा।।८७।। और वह मिथ्यात्व दो प्रकारका है -- एक जीव मिथ्यात्व और दूसरा अजीव मिथ्यात्व। इसी प्रकार अज्ञान, अविरति, मोह तथा क्रोधादि कषाय ये सभी भाव जीव अजीवके भेदसे दो प्रकारके हैं। भावार्थ -- द्रव्यकर्मके उदयसे जीवमें जो मिथ्यात्व आदिका विभावभावरूप परिणमन होता है वह जीव चेतनका विकार होनेसे जीवरूप है तथा उस विभावभावका कारण जो द्रव्यकर्म है वह पुद्गलात्मक होनेसे अजीवरूप है।।८७।। आगे जो मिथ्यात्वादिक जीव अजीव कहे गये हैं वे कौन हैं? उनका पृथक् पृथक् वर्णन करते हैं -- पुग्गल कम्मं मिच्छं, जोगो अविरदि अण्णाणमज्जीवं। उवओगो अण्णाणं, अविरइ मिच्छं च जीवो दु।।८।। जो मिथ्यात्व, योग, अविरति तथा अज्ञान अजीव हैं वे पुद्गल कर्म हैं और जो अज्ञान, अविरति तथा मिथ्यात्व जीव हैं वे उपयोगरूप हैं।।८८।। मिथ्यात्व आदि भाव चैतन्य परिणामके विकार क्यों हैं? इसका उत्तर कहते हैं -- उवओगस्स अणाई, परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स। मिच्छत्तं अण्णाणं, अविरदिभावो य णायव्वो।।८९।। मोहसे युक्त उपयोगके तीन परिणाम अनादिकालीन हैं। वे मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति भाव जानना चाहिए।।८९।। १.८६ वीं गाथाके आगे ज. वृ.में निम्नांकित गाथा अधिक व्याख्यात है -- पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं। पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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