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कुन्दकुन्द-भारती जिस प्रकार पुद्गल द्रव्य, जिसमें जीवके रागादिक परिणाम निमित्त हैं ऐसे कर्मपनेरूप परिणमन करते हैं उसीप्रकार जीव भी, जिनमें पुद्गलादिक दर्शनमोह तथा चारित्रमोह आदि कर्म निमित्त हैं ऐसे रागादिभावरूप परिणमन करते हैं। फिर भी जीव कर्मके गुणोंको नहीं करता है और कर्म जीवके गुणोंको नहीं करता है। दोनोंका परिणमन परस्परके निमित्तसे होता है, ऐसा जानो। इस कारणसे आत्मा अपने भावोंका कर्ता है, पुद्गल कर्मके द्वारा किये हुए समस्त भावोंका कर्ता नहीं है।।८०-८२।। आगे निश्चय नयसे आत्माके कर्तृकर्मभाव और भोक्तृभोग्यभावका वर्णन करते हैं --
णिच्छयणयस्स एवं, आदा अप्पाणमेव हि करेदि।
वेदयदि पुणो तं चेव, जाण अत्ता दु अत्ताणं ।।८३।। निश्चय नयका ऐसा मत है कि आत्मा अपनेको ही करता है और अपनेको ही भोगता है ऐसा जानो।।८३।। आगे व्यवहार नयसे आत्माके कर्तृकर्मभाव और भोक्तृकर्मभावका उल्लेख करते हैं --
ववहारस्स दु आदा, पुग्गलकम्मं करेइ णेयविहं।
तं चेव पुणो वेयइ, पुग्गलकम्मं अणेयविहं।।८४।। व्यवहार नयका यह मत है कि आत्मा अनेक प्रकारके पुद्गल कर्मको करता है और अनेक प्रकारके उसी पुद्गल कर्मको भोगता है।।८४ ।। आगे व्यवहार नयके मतको दूषित ठहराते हैं --
जदि पुग्गलकम्ममिणं, कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा।
दोकिरियावादित्तं, पसजदि सम्मं जिणावमदं।।८५।। यदि जीव इस पुद्गलकर्मको करता है और उसीको भोगता है तो द्विक्रियावादित्वका प्रसंग आता है और वह प्रसंग जिनेंद्रदेवको संमत नहीं।
भावार्थ -- दो द्रव्योंकी क्रियाएँ भिन्न ही होती हैं। जड़की क्रिया चेतन नहीं करता और चेतन जड़की क्रियाएँ नहीं करता। जो पुरुष एक द्रव्यको दो क्रियाओंका कर्ता मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि दो द्रव्योंकी क्रिया एक द्रव्यके मानना यह जिनका मत नहीं है।।८५ ।।।
आगे दो क्रियाओंका अनुभव करनेवाला पुरुष मिथ्यादृष्टि क्यों है? इसका समाधान करते
जम्हा दु अत्तभावं, पुग्गलभावं च दोवि कुव्वंति। तेण दु मिच्छादिट्ठी, दोकिरियावादिणो हुँति।।८६।।
१. दो किरिया।