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________________ cho कुन्दकुन्द-भारती आगे आत्मा इन तीन प्रकारके परिणामरूप विकारोंका कर्ता है यह कहते हैं -- एएसु य उवओगो, तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो। जंसो करेदि भावं. उवओगो तस्स सो कत्ता।।१०।। मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति इन तीनोंका अनादि निमित्त होनेपर आत्माका उपयोग निश्चय नयसे शुद्ध, निरंजन तथा एक होकर मिथ्यात्व आदि तीन भावरूप परिणमन करता है। वह आत्मा इन तीनोंमेंसे जिस भावको करता है वह उसीका कर्ता होता है।।१०।। आगे कहते हैं कि जब आत्मा मिथ्यात्व आदि तीन विकाररूप परिणमन करता है तब पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणमन हो जाता है -- जं कुणइ भावमादा, कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे, तम्हि सयं पुग्गलं दव्वं ।।९१।। आत्मा जिस भावको करता है वह उस भावका कर्ता होता है और आत्माके कर्ता होनेपर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणत हो जाता है।।९१ ।। आगे अज्ञान ही कर्मोंका करनेवाला है यह कहते हैं -- परमप्पाणं कुव्वं, अप्पाणं पि य परं करितो सो। अण्णाणमओ जीवो, कम्माणं कारगो होदि।।९२।। परको अपना और अपनेको परका करता हुआ अज्ञानी जीव ही कर्मोंका कर्ता होता है।।९२।। आगे ज्ञानसे कर्म नहीं उत्पन्न होता यह कहते हैं -- परमप्पाणमछुव्वं, अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो। सो णाणमओ जीवो, कम्माणमकारओ होदि।।९३।। जो जीव परको अपना नहीं करता और अपनेको पर नहीं करता वह ज्ञानमय है। ऐसा जीव कर्मोंका कर्ता नहीं होता है।।९३।। आगे अज्ञानसे कर्म क्यों उत्पन्न होते हैं? इसका उत्तर देते हैं -- तिविहो एसुवओगो, अप्पवियप्पं करेइ कोहो हं। कत्ता तस्सुवओगस्स, होइ सो अत्तभावस्स।।९४ ।। यह तीन प्रकारका उपयोग अपनेमें विकल्प करता है कि मैं क्रोधरूप हूँ उस अपने उपयोग भावका वह कर्ता होता है।।९४ ।। १. अस्स वियप्पं ज. वृ.। २. एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेनमानमायालोभमोहरागद्वेषकर्म नोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुघ्राणिरसनस्पर्शसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि ज. वृ. ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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