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________________ कर्म सिद्धान्त 16. कमोन्मूलन 8. उपसंहार-इस प्रकार कर्मोदय के रहते हुए भी सत्तागत कर्मों के संक्रमण आदि के द्वारा कोई भी व्यक्ति निर्बाध रीति से साधन पथ पर अग्रसर हो सकता है। 'मोक्ष मार्ग भी अक्षुण्ण बना रहता है और कर्म-सिद्धान्त में भी बाधा नहीं आती। यह है जैन दर्शन का विचित्र कर्म-सिद्धान्त, जिसका आधार चेतन तथा अचेतन वस्तुओं की तात्त्विक व्यवस्था है, कोई नियन्ता नहीं। यही कारण है कि अनादि काल से संसार तथा मोक्ष की अथवा दुःख-सुख आदि द्वन्द्वों की यह धारा, बिना किसी भूल के चली आ रही है और इसी प्रकार चलती रहेगी। कोई बुद्धिशाली व्यक्ति तो कदाचित् कहीं पर भूल कर भी सकता है, परन्तु तात्त्विक व्यवस्था में यह सम्भव नहीं / जीव सूक्ष्म से सूक्ष्म भी दोष करेगा तो तुरन्त बन्ध जायेगा। अनुनय, विनय या क्षमा के लिए यहाँ अवकाश नहीं। अत: मुमुक्षु जनों को पद-पद पर सावधान रहकर चलने की आवश्यकता है। पुस्तक के कवर पर दिया गया चित्र कर्म-सलिल में अथवा संसार-सागर में डूबे हुए उस संसारी जीव की दयनीय दशा का निदर्शन करता है, जो कि जल में डूबे हुए कमल की भाँति आत्म विकास से वञ्चित रह रहा है, और निराशा के कारण जिसकी गर्दन नीचे की ओर लटकी हुई है / उपरोक्त प्रकार यदि वह सत्पुरुषार्थ जाग्रत करे तो धीरे-धीरे इस महा-सलिल से ऊपर उठकर सागर को तर जाये। - 'मैं चेतन हूँ, जानना देखना मेरा कर्तव्य है' ऐसा निर्णय न करना तथा अपने कर्तव्य-क्षेत्र का उल्लंघन करके अन्य पदार्थों के साथ स्वामित्व सम्बन्ध जोड़ना, उनमें अहंकार ममकार करना, उनको अपने लिए इष्ट या अनिष्ट समझना तथा आसक्त-चित्त हुआ उनमें वर्तन करना, ये सब आध्यात्मिक अपराध है, अत: बन्ध के कारण हैं, विकास के विरोधी हैं। ऐसे भावों को प्रकट न होने देने में ही कर्म-बन्धन से मुक्त होने की साधना निहित है। ऐसी तात्त्विक दृष्टि प्रदान करने वाले 'जिनेन्द्र' भगवान हम सबको बल दें कि हम भी उनकी भाँति कर्मों का उन्मूलन कर अर्हन्त पदको प्राप्त हो सकें, इस महा सलिल से ऊपर उठकर, संसार सागर से पार हो सकें।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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