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________________ १६. कर्मोन्मूलन कर्म सिद्धान्त तक बढ़ जाता है कि वैराग्य की श्रेणियों पर चढ़ता हुआ वह सर्व बाह्य ग्रन्थ्यिों को त्यागकर निम्रन्थ हो जाता है, और कठोर तप तथा ध्यान समाधि आदि के द्वारा अन्तरंग ग्रन्थियों को भी तोड़ने का अभ्यास करने लगता है। फलस्वरूप कर्मों की सत्ता में भगदड़ मच जाती है। स्थिति तथा अनुभाग का बड़े वेग से अपकर्षण होने लगता है। आगे-आगे उत्तरोत्तर मन्द अनुभाग को लेकर ही कर्म उदय में आता है, जिससे साधना बराबर बढ़ती जाती है। इस प्रकार कुछ ही समयों में चारित्रमोह का उपशम और फिर पूर्व क्रम से क्षय हो जाता है। उसकी सत्ता का उन्मूलन हो जाने के कारण चारित्र 'यथाख्यात' नाम पाता है, अर्थात् समता तथा शमता जैसी लक्षित की गई थी वैसी हो जाती है। क्योंकि मोह तथा क्षोभ ही ज्ञान आदि को आच्छादित अथवा तिरोहित करते थे इसलिये उनका अभाव ही जाने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय ये तीनों घातिया प्रकृति भी बेचारी उसका साथ छोड़ने के लिये बाध्य हो जाती हैं। फलस्वरूप वह सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा तथा सर्वसमर्थ हो जाता है। यही है उसकी अर्हन्त अवस्था जिसे जीवन्मुक्ति भी कहते हैं । इस अवस्था में वह शरीरयुक्त होते हुए भी परमात्मा है। . ७. अघात्युन्मूलन यद्यपि शरीर से सम्बन्ध रखने वाले आयु, नाम, गोत्र तथा वेदनीय इन चार अघातिया प्रकृतियों की सत्ता अभी विनष्ट नहीं हुई है, परन्तु मोहनीय के अभाव के कारण जली रस्सी के बटों की भाँति वे अब निष्फल हैं। शरीर, आयु तथा भोग को बनाये रखना मात्र ही उनका काम रह जाता है । जीव को सुख दुःख पहँचाने से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। अत: अर्हन्त अवस्था को प्राप्त जीवन्मुक्त वह सशरीर परमात्मा, जब तक आयु पूरी नहीं होती तब तक भव्य जीवों के कल्याणार्थ दिव्य उपदेश देता हुआ स्थान-स्थान पर विहार करता रहता है। आयु के अन्तिम क्षणों की प्राप्ति हो जाने पर वह शरीर तथा वचन की क्रियाओं का निरोध करके निश्चल हो जाता है, जिसके कारण अघातिया कर्म भी वायु के वेग से उड़ने वाले सूखे पत्तों की भाँति नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। __ शरीर पूर्ण हो जाने पर वह अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण अध्यात्म-लोक के शिखर पर जा विराजता है, जहाँ कि वह सदा के लिए समतां तथा शमता रूप . चिरन्तम्-शान्ति में अवस्थित रहेगा। कर्मों के बन्धन तोड़ देने के कारण वह अब मुक्त है और विकल्पों तथा कषायों रूप आभ्यन्तर जगत का लय हो जाने से शून्य । इन कारणों का अभाव हो जाने से अब उसे शरीर धारण करने को अवकाश नहीं, इसलिए विदेह-मुक्त है और जीवन का प्रयोजन सिद्ध हो जाने से सिद्ध है। अनन्तों ऐसे हो गए हैं और अनन्तों ऐसे होते रहेंगे। आप सब भी ऐसा होने का प्रयल करें, यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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