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कर्म सिद्धान्त
१६. कमोन्मूलन तात्त्विक रहस्य को स्पर्श करने में सफल हो जाता है । यह मोक्ष का साक्षात् पुरुषार्थ है । इस लब्धि का विशेष रूप नीचे पृथक् से दिया जाता है।
५. मोहोन्मूलन करण-लब्धिके तीन भेद हैं-अध: करण, अपूर्व करण और अनिवृत्ति करण । करण नाम परिणाम का है। प्रतिक्षण अनन्त गुणी विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ जीव का परिणाम बराबर आगे बढ़ता चला जाता है। क्योंकि यह परिणाम अलौकिक दिशा का है, इसलिए इसके द्वारा होने वाले संक्रमणादि भी बहुत अधिक होते हैं। अगले-अगले प्रत्येक समय में अधिक-अधिक शुभ अनुभागवाले निषेक उदय में आते हैं। स्थिति के घटने की रफ्तार बहत बढ़ जाती है। तीनों करणों का विस्तार तो यहाँ किया जाना सम्भव नहीं है, हाँ संक्षेप में इतना कहा जा सकता है कि ये तीन करण परिणाम-विशद्धि की उत्तरोत्तर उन्नत तीन श्रेणीयें हैं। प्रथम श्रेणी में प्रगति कम होती है, द्वितीय श्रेणी में उससे अधिक और तृतीय श्रेणी में उससे भी अधिक । क्रम पूर्वक इन तीन श्रेणियों में से गुजरते हुए वह दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने में सफल हो जाता है। उपशम का स्वरूप पहले बताया जा चुका है, अर्थात् अपकर्षण, उत्कर्षण द्वारा सत्ता के मध्यवर्ती कुछ निषेकों को अपने स्थान से हटाकर वह स्थान बिल्कुल खाली कर देता है । उदय धारा जब खाली स्थान वाले उन समयों में प्रवेश करती है तो वहाँ कोई भी निषेक उदय में आने योग्य नहीं पाती। उदय के अभाव में साधक की अन्तर्दृष्टि खिल उठती है, जिससे कि उसे बाह्याभ्यन्तर तात्त्विक व्यवस्था का साक्षात्कार हो जाता है। इसे ही 'उपशम सम्यक्त्व' की प्राप्ति कहते हैं।
उपशम का काल क्योंकि अत्यन्त अल्प होता है, अत: कुछ ही समय पश्चात् उसके परिणाम पहले की भाँति अन्धकार में चले जाते हैं । परन्तु उपशम के क्षणिक संस्कार के कारण वह पुन: ऊपर उठता है । यद्यपि पहले की भाँति वेग के साथ प्रगति तो करने नहीं पाता परन्तु गिरता पड़ता चलता अवश्य रहता है । इस अवस्था में वह 'क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि' कहलाता है। क्षयोपशम का रूप पहले दिखाया जा चुका है। यहाँ यद्यपि दर्शनमोहनीय कर्म उदय में आ जाता है परन्तु परिणामों की उपर्युक्त विशुद्धि के कारण उसका अनुभाग अत्यन्त क्षीण होकर ही उदय में आता है, जो उस तात्त्विक दृष्टि का लोप करने की तो सामर्थ्य नहीं रखता, परन्तु उसको कुछ मलिन अवश्य कर देता है। इससे उसकी साधना में कोई मौलिक अन्तर नहीं पड़ता, और वह बराबर अपनी शक्ति के अनुसार गिरता पड़ता अपने परिणामों की सम्भाल करता रहता है। फलस्वरूप एक दिन दर्शन-मोह का समूल नाश अथवा 'क्षय' करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है।
६. घात्युन्मूलन यहाँ ही उसकी साधना का अन्त नहीं हो जाता। दृष्टि अत्यन्त निर्मल हो जाने के कारण वह अत्यन्त निर्भय हो जाता है। उसका बल यहाँ