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________________ १६. कमोन्मूलन ... ७७ कर्म सिद्धान्त क्या उदय भी बन्ध के अनुसार होता है ? यदि ऐसा होता तो अवश्य ही जीव की मुक्ति कभी न होती। परन्तु सौभाग्य से ऐसा नहीं होता, क्योंकि बन्ध और उदय के मध्य में 'सत्ता' नामक जो तृतीय करण बैठा हुआ है और जिसे कि प्रश्न करते समय आप भूल गए हैं, वह हमें हर सहायता देने को तैयार है। यह अच्छी तरह निर्धारण कराया जा चुका है कि सत्तागत निषेकों में संक्रमण अपकर्षण तथा उत्कर्षण होता रहता है, जिसके कारण उदय-स्थान को प्राप्त करते-करते कर्म-प्रकृति में न जाने कितने हेर फेर हो जाते हैं। इसी कारण जैसा कर्म बंधता है वैसा उदय में नहीं आता । बन्ध किसी और रूप में होता है और उदय किसी और रूप में आता है । सो कैसे, यह बताता हूँ। यह बात पहले ही अवधारण कर लेनी चाहिये कि जो परिणाम बन्धका कारण है, वही संक्रमण आदि का भी कारण है। ऐसा नहीं है कि बन्ध के योग्य परिणाम तो कोई और होता हो और संक्रमण आदि के योग्य कोई और । इसलिये प्रत्येक जीव को प्रत्येक समयवर्ती परिणाम द्वारा जहाँ नवीन बन्ध होता है, वहाँ सत्ता में पड़े कर्मों में संक्रमणादि भी तदनुसार अवश्य ही साथ-साथ हुआ करते हैं । इस प्रकार उदय आने तक उस निषेक को न जाने कितने उतार-चढ़ाव देखने पड़ते हैं, यहाँ तक कि जब वह उदय में आता है तब उसका रूप प्राय: बदल चुका होता है । जो निषेक बन्ध के समय पुण्य रूप था, वही उदय के समय कदाचित् पाप रूप हो जाता है अथवा और भी अधिक शुभ अनुभाग वाला हो जाता है; अथवा जो निषेक बन्ध के समय पाप रूप था, वही उदय के समय कदाचित् पुण्य रूप हो जाता है अथवा और भी अधिक अशुभ अनुभाग वाला हो जाता है । इस प्रकार बन्ध तथा उदय के बीच बहुत बड़ा अन्तर पड़ जाता है। ३. पुरुषार्थ-उद्भव-यह बात पहले बताई जा चुकी है कि उदय सदा एक सा नहीं रहता, क्योंकि करोड़ों वर्षों में बंधे शुभ तथा अशुभ समय-प्रबद्धों के विभिन्न निषेक एक एक समय पर स्थित होने के कारण, प्रति समय पाप तथा पुण्य का मिश्रित रूप ही उदय में आया करता है। इस मिश्रण में कभी पुण्य के निषेक अधिक हो जाते हैं और कभी पाप के। संक्षेप में यों कह लीजिये कि स्वत: ही कभी पुण्य का और कभी पाप का उदय आता रहता है। पुण्य प्रकृति के उदय में जीव के परिणाम शुभ होते हैं और पाप प्रकृति के उदय में अशुभ । पुण्य और पाप प्रकृतियों में भी कभी तीव्र अनुभाग का उदय होता है और कभी मन्दका। तीव्र पाप के उदय में परिणाम अत्यन्त मलिन होते हैं और मन्द पाप के उदय में किञ्चित् मलिन । इसी प्रकार तीव्र पुण्य के उदय में परिणाम अत्यन्त निर्मल होते हैं और मन्द पुण्य के उदय में किञ्चित् निर्मल । पुण्य पाप के मिश्रित उदय में परिणाम प्राय: भोगासक्त रहते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र यथा योग्य जानना।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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