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________________ कर्म सिद्धान्त १६. कमोन्मूलन . जब तक जीव के तीव्र पाप का उदय रहता है तब तक उसमें मोक्ष-मार्ग सम्बन्धी पुरुषार्थ की जागृति को अवकाश नहीं क्योंकि ऐसी अवस्था में उसके ज्ञान का क्षयोपशम इतना मन्द रहता है कि उसको पारमार्थिक हिताहित का विवेक उत्पन्न नहीं होता। इस श्रेणी में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी तक के सब प्राणी तथा अत्यन्त पापासक्त चित्त वाले मनुष्य भी आ जाते हैं। कदाचित् सौभाग्यवश स्वत: अपने क्रम पर किसी विवक्षित एक जीव-विशेष को ज्ञानावरणी तथा चारित्र मोहनीय की पाप प्रकृतियों का उदय मन्द पड़ने पर ज्ञान का कुछ क्षयोपशम तथा हिताहित का कुछ विवेक जागृत होता है, तब से यदि वह चाहे तो सम्यक् पुरुषार्थ में चित्त लगा सकता है। इस श्रेणी में मन्द आसक्ति वाले कुछ मनुष्य तथा तिर्यञ्च आते हैं। - मोक्ष-मार्ग के पुरुषार्थ में धीरे-धीरे विकास होता जाता है, जो अन्त में पूर्ण होकर साक्षात् फलदायी होता है। वह पुरुषार्थ पहली दशा में अव्यक्त रहता है और पीछे व्यक्त होता जाता है। पुरुषार्थ की अभिव्यक्ति का यह क्रमिक विकास पाँच भागों में विभक्त करके दर्शाया जाता है जिसे 'पंच लब्धि' कहा गया है। उन पाँचों के नाम हैं- क्षयोपशम-लब्धि, विशुद्धि-लब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करण-लब्धि । ये लब्धियें केवल उस उस शक्ति की उपलब्धि मात्र हैं, साक्षात् पुरुषार्थ रूप नहीं। जीव इस लब्धि या शक्ति का उपयोग किस दिशा में करे ऐसा कोई नियम नहीं है, यह उसकी रुचि पर निर्भर है। धनकी प्राप्ति होने पर व्यक्ति उसे दान में लगाये या भोगों में अथवा पापाचरण में यह उसकी रुचि पर निर्भर है। इसी प्रकार ज्ञान की प्राप्ति होने पर. वह उसे तत्त्व-निर्णय में लगाये या एटम बम बनाने में यह उसकी अपनी रुचिपर निर्भर है। जो व्यक्ति इसका उपयोग आत्म-कल्याण की दिशा में करता है वह अवश्य मुक्त हो जाता है । ऐसे जीव यद्यपि विरले होते हैं पर होते अवश्य हैं। जो करे सो पावे । यहाँ तो इतना सिद्ध करना इष्ट है कि कर्मोदय की अटूट धारा में भी ऐसे अवसर स्वत: प्राप्त होते रहते हैं जिनसे लाभ उठाकर यदि व्यक्ति चाहे तो सत्पुरुषार्थ जागृत कर सकता है । अवसर बीत जाने पर पुन: तीव्र कर्म का उदय आ जाता है, इसलिए प्रथम लब्धि की प्राप्ति पर ही विवेक जागृत करना योग्य है। ४. पंच लब्धि हिताहित रूप विवेक की प्राप्ति ही प्रथम 'क्षयोपशम लब्धि' है जिसका यदि सदुपयोग न करे तो वह हाथ से निकल जाती है। उसका उपयोग व्यक्ति चाहे तो हित-विचारणा की दिशा में कर सकता है। उसकी प्राप्ति मात्र से ही काम नहीं चल जाता, क्योंकि सभी मनुष्यों में तथा सभी पशु पक्षियों में प्राय: यह योग्यता मौजूद रहती है परन्तु अनादिगत कुटेव के कारण प्राय: सभी उसका उपयोग भोग विलास की दिशा में करते हुए मृत्यु के ग्रास बनते रहते हैं। तथापि मोक्ष-मार्ग पर बढ़ने वाले किसी भी जीव को यह लब्धि अत्यन्त आवश्यक है और स्वत: पुण्योदयवश प्राप्त हो जाया करती है। इसकी प्राप्ति के लिए बुद्धि-पूर्वक पुरुषार्थ करने की अपेक्षा नहीं होती।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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