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________________ १६. कर्मोन्मूलन १.शंका; २. समन्वय, ३. पुरुषार्थ-उद्भव; ४. पंचलब्धि; ५.मोहोन्मूलन; ६. घात्युन्मूलन; ७. अघात्युन्मूलन; ८. उपसंहार। १. शंका–जीव तथा कर्म की बन्ध उदय वाली अटूट धारा के अन्तर्गत यह बताया गया है कि जीव के योग तथा उपयोग के कारण जड़ कर्मों का उसके प्रदेशों के साथ बन्ध हो जाता है, जो उत्तर समयों में बराबर क्रम पूर्वक परिपाक को प्राप्त होकर उदय में आता रहता है । इस उदय के कारण जीव को पुन: योग तथा उपयोग में प्रवृत्त होना पड़ता है जिससे वह पुन: बन्ध को प्राप्त हो जाता है। बिना किसी नियन्ता की अपेक्षा किये यह प्रवाह बराबर चलता रहता है। यद्यपि पूर्वगत अधिकार में यह बताया जा चुका है कि समतायुक्त तपश्चरण के द्वारा इस धारा का विच्छेद किया जा सकता है, परन्तु प्रश्न तो यह है कि इस अटूट धारा में एक भी समय ऐसा आ जाए जिसमें कर्म का उदय न हो तभी तो तपश्चरणादि में प्रवृत्ति हो सकेगी? जहाँ सदा कर्म का उदय बना ही रहे वहाँ ऐसी प्रवृत्ति होनी कैसे सम्भव है और उसके बिना कर्मोन्मूलन भी कैसे सम्भव है ? । २. समन्वय प्रश्न बिल्कुल उचित है, और कर्म-सिद्धान्त को सीखने वाले सभी प्राथमिक विद्यार्थियों में इसका जाग्रत होना भी स्वाभाविक है, परन्तु यह प्रश्न वास्तव में इस जटिल सिद्धान्त की पूरी-पूरी जानकारी न होने का द्योतक है । तनिक भी विचार करें तो अवश्य इसका रहस्य ध्यान में आ जाये। कर्म-सिद्धान्त के इस निबन्ध में हमने जीव के परिणाम, बन्ध, उदय सत्त्व, संक्रमण, अपकर्षण, उत्कर्षण, उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय ये १० बातें क्रम पूर्वक बताई हैं। उनमें से एक भी बात को दृष्टि से ओझल नहीं करना है। जिस प्रकार बताने में इनका कथन आगे पीछे किया गया है, वस्तु-व्यवस्था में भी ये उसी प्रकार आगे पीछे होते हों ऐसी बात नहीं है । वस्तु-स्वरूप जटिल है । यथा योग्य रूप से इन सबका सद्भाव एक ही समय में रहता है। जब तक दृष्टि में इन सबको युगपत् न देखा जाये तब तक उपरोक्त शंका शान्त नहीं हो सकती । देखो मैं दर्शाता हूँ प्रश्न में हमारे पास तीन चीजें हैं—परिणाम, बन्ध तथा उदय । इन तीनों के संयोग से तीन विकल्प उत्पन्न होते हैं—परिणाम से बन्ध, बन्ध से उदय और उदय से परिणाम । यहाँ परिणाम के अनुसार बन्ध होता है यह प्रथम विकल्प ठीक है, उदय के अनुसार परिणाम होता है यह तीसरा विकल्प भी ठीक है; परन्तु विचारना तो यह है कि क्या उपरोक्त दोनों विकल्पों की भाँति नं० २ वाला विकल्प भी ठीक है, अर्थात्
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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