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१५. कर्म-पुरुषार्थ समन्वय . ७५
कर्म सिद्धान्त है, जबकि प्रति समय अनन्त निषेक समाप्त होते रहें । अनन्त निषेकों का एक समय में नाश तभी सम्भव है जबकि ऊपर वाले निषेक अपने काल से पहले ही पाक दशा को प्राप्त होकर उदय में आ जायें, अर्थात् उनका अपकर्षण हो जाये । परन्तु यह अपकर्षण नियम से व्याघात रूप ही होना चाहिये, जो तपश्चरण के बिना सम्भव नहीं, क्योंकि तप-विहीन समता के द्वारा होने वाला अपकर्षण प्रधानतया अव्याघात रूप होता है, अर्थात् उपशम रूप होता है। अपने काल से पहले उदय में आना अविपाक निर्जरा है, इसलिये मोक्षमार्ग में जहाँ समता की आवश्यकता है, वहाँ तपश्चरण का भी एक आवश्यक स्थान अवश्य है।
सभी व्यक्ति समान शक्ति वाले नहीं होते, अत: साधक अवस्था में कोई कम तपश्चरण करता है और कोई अधिक । कम तपश्चरण के द्वारा अल्प कर्मों की सत्ता का विच्छेद होता है और अधिक तपश्चरण के द्वारा अधिक सत्ता का । इसीलिये कम तपश्चरण करने वाले के कर्मों की सत्ता का पूर्ण अभाव दो तीन भवों में होता है, और अधिक तपश्चरण करने वाले का एक ही भव में।
परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शीघ्र सफलता हस्तगत करने के लोभ से कोई अधिक तपश्चरण करने लगे। विवेकहीन होने के कारण ऐसा करना बाल-तप या अज्ञान-तप कहलाता है, क्योंकि ऐसा करने से शरीर नष्ट हो जाता है और जो अल्प तपश्चरण वह इसके द्वारा कर सकता था उसके लिये भी अवकाश नहीं रह जाता। हर भव में इसी प्रकार करता रहे तो दो तीन भवों में तो क्या हजारों भवों में भी किनारा हाथ नहीं आता। इसलिये शास्त्रों में सर्वत्र शक्तितस्तप तथा शक्तितस्त्याग का उल्लेख किया गया है। विवेक की परीक्षा इसी बात में है कि न तो अधिक कर्कश आचरण करे और न अधिक मृदु, दोनों के मध्य में रहे। न तो अपनी शक्ति को छिपाकर स्वच्छन्द ही बने और न दूसरे की देखम देखी अपने शरीर की उपेक्षा करके अधिक शक्ति वालों जैसा आचरण करे। .
न केवल समता पर सन्तुष्ट होकर बैठ जाये और न समता की उपेक्षा करके केवल शरीर-शोषण करने पर उतारू हो जाये। दोनों ही अतियें मोक्ष-मार्ग का नाश करने वाली हैं। यह मार्ग बहुत विवेक का है। जिसे अपने घर का विवेक नहीं है, उसे चाहिये कि किसी विवेकवान् गुरु की शरण में जावे।