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भद्रवाहु-चरित्र। आकर और उन्हें नमस्कार कर देखे हुये वृतान्तको । कह सुनाया | चन्द्रगुप्तिके वचन सुनकर भद्रबाहुने उनकी प्रशंसा कर कहा-वत्स ! जैसा शास्त्रोंमें कहा वैसाही तुमने आचरण किया क्योंकि जहां केवल एकही , स्त्री हो वहां साधुओंको जीमना योग्य नहीं है। .
फिर चौथे दिन गुरूको प्रणाम कर आहारके लिये जब चन्द्रगुप्तिमुनि घूमने लगे तब वनदेवीने उन्हें निश्चलवतके धारण करने वाले तथा पवित्र हृदय समझ कर उसीसमय वनमें गृहस्थजनोंसे पूर्ण नगर रचा। मुनिराजने भी मनुष्योंसे पूर्ण नगर देखकर उसमें प्रवेश किया और वहां गृहस्थोंसे पदपदमें नमस्कार किये हुये होकर श्रावकोंके द्वारा यथाविधि दिया हुआ मनोहर
आहार ग्रहण किया ॥ - चन्द्रगुप्ति मुनिराज पारणा करके अपने स्थान पर
त्रियम् । विलोक्यायोग्यतां मत्वा बिरराम ततो जमात् ॥ २७॥ गुरुमभ्येत्य वन्दित्वा पुनस्तदृतमालपत् । तदाकर्ण्य समाचले दीक्षित संशयः ॥ ३०॥ यदुसमागमे पत्स ! तदेवानुष्ठितं त्वया । न युकं यत्र वामका यानां तत्र जेमनम् ॥ २९ ॥ चतुर्थेऽहि शुरु नत्वा लेपार्थ व्यचरन्मुनिः । ज्ञात्वा दृढवतं धीर देव्या ने शुद्धबेतसम् ॥ ३० ॥ नगरं निर्मित एल सागारिजनं संकुलम् । गच्छंस्तत्र मानवाक्ष्य नगरं नागरमतम् ॥ ३१ ॥ प्रपिछत्तत्र सागौरवन्धमानः पदे पदे । चाह शाचराहारं प्रत्तं प्रायथाविधिः ॥ ३२॥ कृत्वाऽसौ पारणं गत्ला स्वस्थाने त्वरित